काकोरी कांड को 100 साल हो गए हैं, लेकिन इसके किस्से आज भी उतने ही रोमांचक हैं. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 9 अगस्त 1925 का दिन एक साहसिक और निर्णायक मोड़ लेकर आया था. इसी दिन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत को सीधी चुनौती देते हुए आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन से सरकारी खजाना लूट लिया था. यह घटना, जिसे आज हम काकोरी कांड के नाम से जानते हैं. यह न सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्य के लिए करारा झटका थी. बल्कि, भारतीय क्रांतिकारियों के हौसले की मिसाल भी बनी.
काकोरी एक्शन के तार बुंदेलखंड के झांसी से भी जुड़े हुए हैं. घटना के बाद क्रांतिकारियों पर गिरफ्तारी और दबाव का पहाड़ टूट पड़ा था. अशफाक उल्ला खां, ठाकुर रोशन सिंह, राजेंद्र लाहिड़ी, मन्मथनाथ गुप्ता और अन्य साथियों के साथ चंद्रशेखर आजाद भी इसमें शामिल थे, लेकिन आजाद अंग्रेजों के हाथ कभी नहीं आए. घटना के बाद वह सबसे पहले बनारस गए, फिर वहां से सीधे झांसी पहुंचे.
अंग्रेजी खुफिया एजेंसियां रहीं नाकामइतिहासकारों की माने तो झांसी में आजाद ने मास्टर रुद्र नारायण के घर कई महीने बिताए और सदर बाजार स्थित बुंदेलखंड मोटर्स वर्क्स में मैकेनिक का काम भी किया. करीब डेढ़ साल तक वह झांसी में ही रहे, लेकिन अंग्रेजी खुफिया एजेंसियां उन्हें पकड़ने में पूरी तरह से नाकाम रहीं. यही वजह थी कि आजाद पर ट्रायल तक शुरू नहीं हो सका था.
सजा सुनाने वाला जज हैमिल्टनकाकोरी कांड का ट्रायल लखनऊ की अदालत में पूरे 18 महीने चला. इस केस में फैसला सुनाने वाला स्पेशल सेशन जज ए. हैमिल्टन यह भांप चुका था कि उसने जिन देशभक्तों को सजा सुनाई है. उनके समर्थकों का गुस्सा उसके लिए खतरनाक साबित हो सकता है. 17 दिसंबर 1927 को फैसला सुनाने के चंद घंटे बाद ही ब्रिटिश सरकार ने उसे गुप्त रूप से झांसी भेज दिया.
झांसी में हैमिल्टन को ब्रिटिश सेना की सख्त सुरक्षा में दो दिन तक रखा गया और फिर चुपचाप तरीके से मुंबई के रास्ते लंदन भेज दिया गया. इसके बाद उसने कभी भारत लौटने की हिम्मत नहीं की. काकोरी षड्यंत्र केस की मूल फाइलों और छह साल की सजा पाने वाले रामदुलारे त्रिवेदी की किताब ‘काकोरी कांड के दिलजले‘ में इसका विस्तार से जिक्र आज भी मिलता है.
4 हजार की लूट, 10 लाख का खर्चइस घटना में ट्रेन से लूटा गया सरकारी खजाना सिर्फ 4553 रुपये, 3 आना और 6 पाई का था, लेकिन इस लूट पर ब्रिटिश सरकार का गुस्सा इतना था कि उसने इस मामले में करीब दस लाख रुपये तक झोंक दिए थे. सरकारी पैरवी पंडित जगतनारायण कर रहे थे, जिन्हें रोजाना 500 रुपये का भुगतान होता था, जो उस दौर में काफी बड़ी रकम थी. दूसरी ओर क्रांतिकारियों की ओर से गोविंद बल्लभ पंत और चंद्रभान गुप्ता जैसे नामी वकील मुकदमा लड़ रहे थे. ब्रिटिश सरकार ने इन क्रांतिकारियों पर पांच हजार रुपये का इनाम भी घोषित किया था.
मामले की जांच के लिए स्कॉटलैंड यार्ड से विशेष सीआईडी अधिकारी को बुलाया गया था, जिससे साफ था कि यह सिर्फ एक डकैती नहीं, बल्कि अंग्रेजों के लिए साम्राज्य की साख का मामला था. काकोरी कांड के बाद अंग्रेजों ने जगह-जगह पोस्टर चिपका कर क्रांतिकारियों की तलाश शुरू की. चंद्रशेखर आजाद के भी इनाम वाले पोस्टर लगाए गए. मगर उनकी चतुराई और स्थानीय समर्थन के चलते अंग्रेज उन्हें पकड़ नहीं पाए. यह कांड महज खजाने की लूट नहीं था. बल्कि, भारतीय क्रांतिकारियों की उस सोच का प्रतीक था, जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ खुलेआम मोर्चा लेने का साहस था.
भारतीय सिर्फ नारों तक सीमित नहींमन्मथनाथ गुप्ता की They Lived Dangerously और कई अन्य ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि काकोरी कांड ने ब्रिटिश सरकार को यह संदेश दे दिया था कि भारतीय अब सिर्फ नारों तक सीमित नहीं है. बल्कि, सीधे साम्राज्य के आर्थिक और राजनीतिक ढांचे पर प्रहार करने में सक्षम हैं. यह घटना क्रांतिकारियों की रणनीति, एकजुटता और अदम्य साहस का ऐसा उदाहरण है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बना रहेगा और यह भी याद दिलाता है कि आजाद जैसे वीरों ने झांसी जैसी धरती को अपने संघर्ष का गवाह बनाया, जबकि हैमिल्टन जैसे अंग्रेज भारत छोड़कर कभी वापस नहीं लौटे.
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