इस्लामाबाद: पाकिस्तान के एक सीनियर अधिकारी ने कहा है कि 'इस्लामाबाद परमाणु बम का परीक्षण करने वाला पहला देश नहीं होगा।' पाकिस्तानी अधिकारी ने ये प्रतिक्रिया डोनाल्ड ट्रंप के उन आरोपों के बाद दी है, जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा था कि चीन, रूस, उत्तर कोरिया और पाकिस्तान जैसे देश गुप्त रूस से अंडरग्राउंड परमाणु परीक्षण कर रहे हैं। उन्होंने कहा था कि अब अमेरिका भी परमाणु परीक्षण करेगा। जिसके बाद पाकिस्तानी अधिकारी ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि पाकिस्तान "परमाणु परीक्षण करने वाला पहला देश नहीं था और न ही उन्हें फिर से शुरू करने वाला पहला देश होगा।"
डोनाल्ड ट्रंप की टिप्पणी से पाकिस्तान भले ही कन्नी काट गया हो, लेकिन पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम पर एक बार फिर से दुनिया का ध्यान गया है। इसके साथ ही सवाल एक बार फिर से उठे हैं कि 1980 के दशक के अधिकांश समय तक प्रतिबंधों के अधीन रहने वाला एक विकासशील देश पाकिस्तान, परमाणु बम को हासिल करने में कैसे कामयाब रहा? कई एक्सपर्ट्स का आरोप है कि वो अमेरिका ही है, जिसने पाकिस्तान को परमाणु बम बनाने में मदद की।
पाकिस्तान ने परमाणु बम बनाना कैसे शुरू किया?
पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम भारत के 1974 के 'स्माइलिंग बुद्धा' परमाणु परीक्षण से नहीं शुरू हुआ था। बल्कि उस धमाके ने पाकिस्तान के कान में जोर से शोर किया। पाकिस्तान को 1971 की लड़ाई में भारत के हाथों शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था। इस युद्ध ने मनोवैज्ञानिक तौर पर पाकिस्तान को तोड़ दिया। उसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो देश की आत्म-छवि को फिर से बनाने के लिए जुट गये। उन्होंने युद्ध के कुछ ही हफ्तों बाद, जनवरी 1972 में मुल्तान में वैज्ञानिकों की एक बैठक में कहा था कि पाकिस्तान को परमाणु विकल्प विकसित करना होगा। भुट्टो ने एक बार कहा था, "अगर भारत बम बनाता है, तो हम घास या पत्ते खाएंगे, भूखे भी रह जाएंगे, लेकिन हमें अपना एक बम जरूर मिलेगा। हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है।" यह पंक्ति पाकिस्तान की नई नीति के पीछे की हताशा को दिखाता है।
उसी साल, भुट्टो ने परमाणु इंजीनियर मुनीर अहमद खान के नेतृत्व में पाकिस्तान परमाणु ऊर्जा आयोग (PAEC) का पुनर्गठन किया, जो पहले वियना स्थित अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में काम कर चुके थे। भुट्टो ने पाकिस्तान एटॉमिक एनर्जी कमीशन को फिर से संगठित किया और उसे 'प्रोजेक्ट-706' नामक गुप्त कार्यक्रम सौंपा। शुरुआत में पाकिस्तान ने प्लूटोनियम रिएक्टर के रास्ते पर काम शुरू किया, लेकिन अमेरिका और कनाडा के प्रतिबंधों के चलते यह रास्ता बंद हो गया। इसी मोड़ पर एक नाम सामने आया जिसने पाकिस्तान के परमाणु इतिहास की दिशा ही बदल दी... वो नाम था अब्दुल कादिर खान।
टेक्नोलॉजी चुराकर कादिर खान ने बनाया परमाणु बम
एक्यू खान उस समय यूरोप के URENCO संस्थान में मेटलर्जिस्ट थे, जहां उन्हें यूरेनियम संवर्धन तकनीक की अहम जानकारियां मिलीं। 1975 में वे पाकिस्तान लौटे तो अपने साथ न सिर्फ डिजाइन और ड्रॉइंग्स लाए, बल्कि पूरी सप्लाई-चेन की सूची भी लेकर आ गए। कहा जाता है कि इस चोरी में कुछ खुफिया एजेंसियों से उन्हें मदद मिली थी। इसके बाद भुट्टो ने तुरंत उन्हें 'कहूटा रिसर्च लैबोरेटरी' का प्रमुख बना दिया, जो आगे चलकर "ख़ान रिसर्च लेबोरेटरी” कहलाई।
इसी जगह पाकिस्तान ने यूरेनियम संवर्धन की तकनीक विकसित की और 1980 के दशक के मध्य तक उसके पास एक या ज्यादा परमाणु बमों के लिए पर्याप्त उच्च संवर्धित यूरेनियम मौजूद था। कुछ देशों ने इस दौरान पाकिस्तान पर चोरी और जासूसी के भी आरोप लगाए, लेकिन पाकिस्तान ने तमाम आरोपों को खारिज कर दिया। कादिर खान पर नीदरलैंड की अदालत में जासूसी के आरोप लगाए गये, लेकिन मामला तकनीकी वजहों से रद्द हो गया, लेकिन पाकिस्तान अपने मकसद में कामयाब हो चुका था।
अमेरिका ने बनाने दिया पाकिस्तान को परमाणु बम?
कहा जाता है कि पाकिस्तान को कुछ सीक्रेट हाथों ने टेक्नोलॉजी चोरी और सप्लाई चेन नेटवर्क बनाने में मदद की थी। इसमें चीन ने उसकी मदद की थी और अमेरिका की तरफ से राजनीतिक छूट मिली थी।
यूरोपीय काला बाजार- पाकिस्तान ने 1970 और 1980 के दशक के दौरान, खान के नेटवर्क के जरिए अलग अलग फर्मों से वैक्यूम पंप, मार्जिंग स्टील, फ्रीक्वेंसी कन्वर्टर्स और सटीक उपकरण मंगवाए। कुछ आपूर्तिकर्ताओं ने जानबूझकर काम किया, जबकि अन्य को मुखौटा कंपनियों के जरिए गुमराह किया गया। दशकों बाद हुई जांच में स्विट्जरलैंड और जर्मनी से लेकर मलेशिया और दुबई तक फैली एक आपूर्ति श्रृंखला का पता चला।
चीन ने कैसे की थी मदद- सार्वजनिक किए गए अमेरिकी खुफिया दस्तावेजों से पता चलता है कि पाकिस्तान को चीन से डायरेक्ट समर्थन मिल रहा था। जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के राष्ट्रीय सुरक्षा अभिलेखागार के मुताबिक, 1983 तक, अमेरिकी अधिकारियों का मानना था कि बीजिंग ने न सिर्फ तकनीकी विशेषज्ञता प्रदान की थी, बल्कि एक परीक्षित परमाणु हथियार डिजाइन भी पाकिस्तान को दिए, जिसे आमतौर पर CHIC-4 मॉडल कहा जाता है। यह भी बताया गया है कि चीन ने 1990 के दशक के मध्य में कहुटा के सेंट्रीफ्यूज को स्थिर करने के लिए 5,000 रिंग मैग्नेट की आपूर्ति की थी, जिसकी बाद में अमेरिकी विदेश विभाग ने पुष्टि भी की। लेकिन हैरानी की बात ये थी उस वक्त भी अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को इसकी जानकारी थी, लेकिन पाकिस्तान के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई।
सऊदी और लीबिया से पैसे: इस दौरान सऊदी अरब और लीबिया से पाकिस्तान को बड़ा समर्थन मिल रहा था। सऊदी अरब पाकिस्तान को जमकर फंड भेजे। सऊदी ने कहने के लिए पाकिस्तान के साथ रक्षा समझौता किया था और उसके नाम पर अपना खजाना खोल दिया। साल 1990 तक, बम लगभग तैयार हो चुका था। पाकिस्तान ने यूरेनियम संवर्धन में महारत हासिल कर ली थी, बम के डिज़ाइन को फाइनल कर लिया गया था और चीन और उत्तर कोरिया के साथ सहयोग करके वितरण प्रणालियां विकसित कर ली गई। इसीलिए पाकिस्तान का गौरी मिसाइल उत्तर कोरिया के मिसाइल से इतना ज्यादा मिलता है।
हैरानी की बात ये है कि अमेरिकी राष्ट्रपति को हर साल प्रमाणित करना पड़ता था कि पाकिस्तान परमाणु बम नहीं बना सकता है और रोनाल्ड रीगन का प्रशासन बार बार कह रहा था कि पाकिस्तान कोई परमाणु बन नहीं बना रहा है, जबकि पाकिस्तान परमाणु बम बना चुका था। और फिर 1998 में भारत के पोखरण-II परमाणु परीक्षण के दो हफ्ते बाद पाकिस्तान ने चागई की पहाड़ियों में पांच विस्फोट कर दुनिया के सातवें घोषित परमाणु देश के रूप में प्रवेश कर लिया।
डोनाल्ड ट्रंप की टिप्पणी से पाकिस्तान भले ही कन्नी काट गया हो, लेकिन पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम पर एक बार फिर से दुनिया का ध्यान गया है। इसके साथ ही सवाल एक बार फिर से उठे हैं कि 1980 के दशक के अधिकांश समय तक प्रतिबंधों के अधीन रहने वाला एक विकासशील देश पाकिस्तान, परमाणु बम को हासिल करने में कैसे कामयाब रहा? कई एक्सपर्ट्स का आरोप है कि वो अमेरिका ही है, जिसने पाकिस्तान को परमाणु बम बनाने में मदद की।
पाकिस्तान ने परमाणु बम बनाना कैसे शुरू किया?
पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम भारत के 1974 के 'स्माइलिंग बुद्धा' परमाणु परीक्षण से नहीं शुरू हुआ था। बल्कि उस धमाके ने पाकिस्तान के कान में जोर से शोर किया। पाकिस्तान को 1971 की लड़ाई में भारत के हाथों शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था। इस युद्ध ने मनोवैज्ञानिक तौर पर पाकिस्तान को तोड़ दिया। उसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो देश की आत्म-छवि को फिर से बनाने के लिए जुट गये। उन्होंने युद्ध के कुछ ही हफ्तों बाद, जनवरी 1972 में मुल्तान में वैज्ञानिकों की एक बैठक में कहा था कि पाकिस्तान को परमाणु विकल्प विकसित करना होगा। भुट्टो ने एक बार कहा था, "अगर भारत बम बनाता है, तो हम घास या पत्ते खाएंगे, भूखे भी रह जाएंगे, लेकिन हमें अपना एक बम जरूर मिलेगा। हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है।" यह पंक्ति पाकिस्तान की नई नीति के पीछे की हताशा को दिखाता है।
उसी साल, भुट्टो ने परमाणु इंजीनियर मुनीर अहमद खान के नेतृत्व में पाकिस्तान परमाणु ऊर्जा आयोग (PAEC) का पुनर्गठन किया, जो पहले वियना स्थित अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में काम कर चुके थे। भुट्टो ने पाकिस्तान एटॉमिक एनर्जी कमीशन को फिर से संगठित किया और उसे 'प्रोजेक्ट-706' नामक गुप्त कार्यक्रम सौंपा। शुरुआत में पाकिस्तान ने प्लूटोनियम रिएक्टर के रास्ते पर काम शुरू किया, लेकिन अमेरिका और कनाडा के प्रतिबंधों के चलते यह रास्ता बंद हो गया। इसी मोड़ पर एक नाम सामने आया जिसने पाकिस्तान के परमाणु इतिहास की दिशा ही बदल दी... वो नाम था अब्दुल कादिर खान।
टेक्नोलॉजी चुराकर कादिर खान ने बनाया परमाणु बम
एक्यू खान उस समय यूरोप के URENCO संस्थान में मेटलर्जिस्ट थे, जहां उन्हें यूरेनियम संवर्धन तकनीक की अहम जानकारियां मिलीं। 1975 में वे पाकिस्तान लौटे तो अपने साथ न सिर्फ डिजाइन और ड्रॉइंग्स लाए, बल्कि पूरी सप्लाई-चेन की सूची भी लेकर आ गए। कहा जाता है कि इस चोरी में कुछ खुफिया एजेंसियों से उन्हें मदद मिली थी। इसके बाद भुट्टो ने तुरंत उन्हें 'कहूटा रिसर्च लैबोरेटरी' का प्रमुख बना दिया, जो आगे चलकर "ख़ान रिसर्च लेबोरेटरी” कहलाई।
इसी जगह पाकिस्तान ने यूरेनियम संवर्धन की तकनीक विकसित की और 1980 के दशक के मध्य तक उसके पास एक या ज्यादा परमाणु बमों के लिए पर्याप्त उच्च संवर्धित यूरेनियम मौजूद था। कुछ देशों ने इस दौरान पाकिस्तान पर चोरी और जासूसी के भी आरोप लगाए, लेकिन पाकिस्तान ने तमाम आरोपों को खारिज कर दिया। कादिर खान पर नीदरलैंड की अदालत में जासूसी के आरोप लगाए गये, लेकिन मामला तकनीकी वजहों से रद्द हो गया, लेकिन पाकिस्तान अपने मकसद में कामयाब हो चुका था।
अमेरिका ने बनाने दिया पाकिस्तान को परमाणु बम?
कहा जाता है कि पाकिस्तान को कुछ सीक्रेट हाथों ने टेक्नोलॉजी चोरी और सप्लाई चेन नेटवर्क बनाने में मदद की थी। इसमें चीन ने उसकी मदद की थी और अमेरिका की तरफ से राजनीतिक छूट मिली थी।
यूरोपीय काला बाजार- पाकिस्तान ने 1970 और 1980 के दशक के दौरान, खान के नेटवर्क के जरिए अलग अलग फर्मों से वैक्यूम पंप, मार्जिंग स्टील, फ्रीक्वेंसी कन्वर्टर्स और सटीक उपकरण मंगवाए। कुछ आपूर्तिकर्ताओं ने जानबूझकर काम किया, जबकि अन्य को मुखौटा कंपनियों के जरिए गुमराह किया गया। दशकों बाद हुई जांच में स्विट्जरलैंड और जर्मनी से लेकर मलेशिया और दुबई तक फैली एक आपूर्ति श्रृंखला का पता चला।
चीन ने कैसे की थी मदद- सार्वजनिक किए गए अमेरिकी खुफिया दस्तावेजों से पता चलता है कि पाकिस्तान को चीन से डायरेक्ट समर्थन मिल रहा था। जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के राष्ट्रीय सुरक्षा अभिलेखागार के मुताबिक, 1983 तक, अमेरिकी अधिकारियों का मानना था कि बीजिंग ने न सिर्फ तकनीकी विशेषज्ञता प्रदान की थी, बल्कि एक परीक्षित परमाणु हथियार डिजाइन भी पाकिस्तान को दिए, जिसे आमतौर पर CHIC-4 मॉडल कहा जाता है। यह भी बताया गया है कि चीन ने 1990 के दशक के मध्य में कहुटा के सेंट्रीफ्यूज को स्थिर करने के लिए 5,000 रिंग मैग्नेट की आपूर्ति की थी, जिसकी बाद में अमेरिकी विदेश विभाग ने पुष्टि भी की। लेकिन हैरानी की बात ये थी उस वक्त भी अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को इसकी जानकारी थी, लेकिन पाकिस्तान के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई।
सऊदी और लीबिया से पैसे: इस दौरान सऊदी अरब और लीबिया से पाकिस्तान को बड़ा समर्थन मिल रहा था। सऊदी अरब पाकिस्तान को जमकर फंड भेजे। सऊदी ने कहने के लिए पाकिस्तान के साथ रक्षा समझौता किया था और उसके नाम पर अपना खजाना खोल दिया। साल 1990 तक, बम लगभग तैयार हो चुका था। पाकिस्तान ने यूरेनियम संवर्धन में महारत हासिल कर ली थी, बम के डिज़ाइन को फाइनल कर लिया गया था और चीन और उत्तर कोरिया के साथ सहयोग करके वितरण प्रणालियां विकसित कर ली गई। इसीलिए पाकिस्तान का गौरी मिसाइल उत्तर कोरिया के मिसाइल से इतना ज्यादा मिलता है।
हैरानी की बात ये है कि अमेरिकी राष्ट्रपति को हर साल प्रमाणित करना पड़ता था कि पाकिस्तान परमाणु बम नहीं बना सकता है और रोनाल्ड रीगन का प्रशासन बार बार कह रहा था कि पाकिस्तान कोई परमाणु बन नहीं बना रहा है, जबकि पाकिस्तान परमाणु बम बना चुका था। और फिर 1998 में भारत के पोखरण-II परमाणु परीक्षण के दो हफ्ते बाद पाकिस्तान ने चागई की पहाड़ियों में पांच विस्फोट कर दुनिया के सातवें घोषित परमाणु देश के रूप में प्रवेश कर लिया।
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