लक्ष्मी प्राप्ति की कामना हर किसी के मन में होती है, एक ज्योतिषी के पास आने वाले प्रश्नकर्ताओं में सर्वाधिक लक्ष्मी प्राप्ति का शुभ समय जानने वाले ही होते हैं। महान कवियों के अनुसार, ‘लक्ष्मी तो विष्णु की पत्नी है और किसी पराई स्त्री की कामना सदाचार नहीं होता है, लेकिन सारी दुनिया ही लक्ष्मी के पीछे दीवानी रहती है। कविजन यह भी कहते हैं कि पुरुष पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होए।
लक्ष्मी प्राप्ति से पहले लक्ष्मी यानि धन के यथार्थ रूप को समझना अतिआवश्यक है। धन का मनोविज्ञान यही कहता है कि पैसा जितना प्रवाह में रहता है, उतना ही बढ़ता है। इसे ऐसे समझा जा सकता है, जैसे कोई व्यक्ति किश्तों पर कार खरीदता है। उसके पास उस समय सीमित धन होता है, पर किश्तों में भुगतान करते हुए वह न केवल अपनी आवश्यकता पूरी करता है बल्कि उसी धन से आगे और कमाई भी कर लेता है। इसका कारण यह है कि उसने अपने धन को चलन में रखा, न कि निष्क्रिय। यदि वह उसी धन को जमा रखता और प्रयोग न करता, तो वह उसकी कोई वृद्धि नहीं करता। इसलिए आवश्यक है कि हम धन के प्रवाह और उपयोगिता के सिद्धांत को समझें। धन को केवल संग्रहित करने के बजाय, उसे उपयोग में लाना ही उसकी
वास्तविक वृद्धि का मार्ग है।
इस विषय में एक प्रसंग स्मृति में आता है, जो बताता है कि एक सेठ के बारे में जो बड़ा ही कंजूस था। एक दिन उसके पास एक भिक्षुक पहुंचा और भोजन आदि मांगने लगा। सेठ जी अपने स्वभाव अनुसार बोले, ‘आज घर में खाना नहीं बना है, हम खुद निमंत्रण में जा रहे हैं,’ भिक्षुक ने कहा, ‘दो पैसे ही मिल जाते।’ सेठ ने कहा, ‘यहां पैसे-वैसे नहीं है, आगे बड़ो।’ इस पर भिक्षुक ने प्रेमपूर्वक सेठ से कहा, ‘तो तुम भीतर क्यों बैठे हो, आओ मेरे साथ, तुम्हारे पास न रोटी है न पैसा है, चलो साथ-साथ मांगेगे और आधा-आधा बांट लेंगे।’ कहने का अभिप्राय है कि लोगों का धन से बड़ा लगाव होता है, पहले जमाने में लोग धन को जमीन में दबाकर रखते थे, आज भी कंजूस प्रवृत्ति वाले लोग धन के प्रवाह को रोककर रखते हैं, जो उनकी ही वृद्धि को रोकता है। इसलिए कहा जाता है कि धन बहे तो बढ़ता है, देखा जाए तो करेंसी का अर्थ है, जो चलता रहे, बहता रहे।
लक्ष्मी प्राप्ति से पहले लक्ष्मी यानि धन के यथार्थ रूप को समझना अतिआवश्यक है। धन का मनोविज्ञान यही कहता है कि पैसा जितना प्रवाह में रहता है, उतना ही बढ़ता है। इसे ऐसे समझा जा सकता है, जैसे कोई व्यक्ति किश्तों पर कार खरीदता है। उसके पास उस समय सीमित धन होता है, पर किश्तों में भुगतान करते हुए वह न केवल अपनी आवश्यकता पूरी करता है बल्कि उसी धन से आगे और कमाई भी कर लेता है। इसका कारण यह है कि उसने अपने धन को चलन में रखा, न कि निष्क्रिय। यदि वह उसी धन को जमा रखता और प्रयोग न करता, तो वह उसकी कोई वृद्धि नहीं करता। इसलिए आवश्यक है कि हम धन के प्रवाह और उपयोगिता के सिद्धांत को समझें। धन को केवल संग्रहित करने के बजाय, उसे उपयोग में लाना ही उसकी
वास्तविक वृद्धि का मार्ग है।
इस विषय में एक प्रसंग स्मृति में आता है, जो बताता है कि एक सेठ के बारे में जो बड़ा ही कंजूस था। एक दिन उसके पास एक भिक्षुक पहुंचा और भोजन आदि मांगने लगा। सेठ जी अपने स्वभाव अनुसार बोले, ‘आज घर में खाना नहीं बना है, हम खुद निमंत्रण में जा रहे हैं,’ भिक्षुक ने कहा, ‘दो पैसे ही मिल जाते।’ सेठ ने कहा, ‘यहां पैसे-वैसे नहीं है, आगे बड़ो।’ इस पर भिक्षुक ने प्रेमपूर्वक सेठ से कहा, ‘तो तुम भीतर क्यों बैठे हो, आओ मेरे साथ, तुम्हारे पास न रोटी है न पैसा है, चलो साथ-साथ मांगेगे और आधा-आधा बांट लेंगे।’ कहने का अभिप्राय है कि लोगों का धन से बड़ा लगाव होता है, पहले जमाने में लोग धन को जमीन में दबाकर रखते थे, आज भी कंजूस प्रवृत्ति वाले लोग धन के प्रवाह को रोककर रखते हैं, जो उनकी ही वृद्धि को रोकता है। इसलिए कहा जाता है कि धन बहे तो बढ़ता है, देखा जाए तो करेंसी का अर्थ है, जो चलता रहे, बहता रहे।