लेखक: अवधेश कुमारप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ BJP में दूसरे स्थान के साथ पार्टी, गठबंधन और कुछ विषयों को छोड़ दें तो सरकार की नीतियों पर भी अधिकृत वक्तव्य एवं निर्णय का दायित्व केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के हाथों में दिखाई दे रहा है। थोड़ी गहराई से तस्वीर को देखिए तो निष्कर्ष यही आएगा कि प्रधानमंत्री मोदी सरकार संबंधी अपनी संवैधानिक भूमिका, संगठन एवं गठबंधन के बीच शीर्ष भूमिका का निर्वहन करते हुए हर स्तर पर अमित शाह को लेकर निश्चिंत और आश्वस्त हैं। रणनीतिक दायित्व: अमित शाह ने तमिलनाडु में BJP और AIADMK गठबंधन के जरिए चुनाव लड़ने का निर्णय किया और इसकी अधिकृत घोषणा चेन्नै से हुई। इसके पहले बिहार के दौरे पर उन्होंने ही पार्टी और गठबंधन के नेताओं के साथ बैठक व रणनीति की घोषणा की। संसद के अंदर वक्फ संशोधन विधेयक जैसे संवेदनशील मामले पर रणनीति का दायित्व अमित शाह के ही कंधे पर देखा गया। विधेयक अवश्य अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने प्रस्तुत किया, लेकिन दोनों सदनों में उठाए गए एक-एक बिंदु पर अंतिम वक्तव्य अमित शाह ने ही दिया। योगी से प्रतिस्पर्धा नहीं: पिछले 11 वर्षों में अनेक नेताओं के विरुद्ध असंतोष के सुर उभरे, अंदरखाने से तरह-तरह की खबरें आई लेकिन अमित शाह को लेकर ऐसा कुछ नहीं हुआ। अपने सांसदों के भाषणों के बीच कोई समस्या आने पर वह स्वयं खड़े होकर दृढ़ वक्तव्य से उनका समर्थन करते हैं। कुछ अति उत्साही या गैर जानकार लोग अवश्य उनके और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच प्रतिस्पर्धा होने की बात उछालते हैं लेकिन सच यह है कि अमित शाह ने व्यक्तिगत हित, राजनीतिक करियर और आत्ममहत्ता की जगह पार्टी और विचारधारा के भविष्य का ध्यान रखते हुए ही अपनी भूमिका निभाई है। अखिलेश को जवाब: जब अखिलेश यादव ने लोकसभा में उनके भाषण के बीच टोक कर कहा कि योगी जी पर भी कुछ बोल देते तो वे रुके और तुरंत उत्तर दिया कि वह भी तीसरी बार रिपीट हो रहे हैं। वह प्रश्न को टाल सकते थे, लेकिन उत्तरदायित्व का एहसास होने के कारण अपने किसी मुख्यमंत्री के बारे में एक शब्द नकारात्मक बोलकर न विरोधियों को अवसर दे सकते हैं और न ही पार्टी के अंदर किसी को उनके मतभेद का नाम लेकर लाभ उठाने का मौका। 370 की लड़ाई: यह नरेंद्र मोदी की भी दूरदर्शिता है कि शाह की क्षमता को पहचान कर न केवल गुजरात में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी उन्हें महत्वपूर्ण भूमिकाएं दीं। देश ने अमित शाह की संसदीय नेतृत्व क्षमता और योग्यता को 4-5 अगस्त 2019 को पहचाना, जब अकल्पनीय माने जाने वाले जम्मू-कश्मीर से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 370 को उन्होंने दोनों सदनों के अंदर अपने नेतृत्व में पूरी तरह निष्प्रभावी कराया। ध्यान रहे, इस देश में 370 एक बड़ी लड़ाई थी। ऐसे मसले पर हुई तीखी, आर-पार की बहस में अमित शाह ने अपनी योग्यता से विरोधियों को भी प्रभावित किया। जोड़ी है बेजोड़: वैसे, अनुच्छेद 370 ऐसा विषय था जिसमें प्रधानमंत्री की स्वयं भाषण देने की इच्छा होनी स्वाभाविक थी। आखिर यह इतिहास निर्माण का अवसर था। लेकिन यह अवसर उन्होंने अमित शाह को दिया। वर्तमान राजनीति में इस तरह के चरित्र दुर्लभ हैं। आप वर्तमान ही नहीं अतीत के कुछ दशकों की राजनीति देख लीजिए और उनके समतुल्य कोई दो व्यक्ति शीर्ष पर तलाश करिए, नहीं मिलेगा। बहुत सारे लोग अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी से उनकी तुलना करते हैं। पार्टी और गठबंधन के लोग उस समय जिस तरह अपनी बात के लिए आडवाणी के पास जाते थे उस तरह अमित शाह के पास आते हैं। फिर भी, तमाम घटनाओं और प्रसंगों के आधार पर देखें तो निष्कर्ष यह है कि मोदी और शाह की जोड़ी अनेक अर्थों में अतुलनीय है। संयत और संतुलित भूमिका: बीते एक दशक में दोनों नेताओं की भूमिकाओं का सामान्य विश्लेषण भी करिए तो ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें अमित शाह ने कभी अपने व्यक्तित्व को शीर्ष पर रखने की कोशिश की हो। वह संसद के अंदर और सार्वजनिक भाषणों में हमेशा नरेंद्र मोदी सरकार बोलते हुए कार्यों का विवरण देते हैं। पिछले संसदीय सत्र को ही देखें तो आतंकवाद, नक्सलवाद, सहकारिता, बैंक संशोधन, अप्रवास एवं आव्रजन के ऐतिहासिक कानून आदि से जुड़े ज्यादातर विधेयकों पर लगभग अंतिम वक्तव्य उन्हीं का था। ऐसे विविधतापूर्ण देश, अनगिनत आकांक्षाओं वाले संगठन एवं गठबंधन परिवार के बीच इतने संयत व संतुलित रूप में भूमिका निभाना आसान नहीं होता। लोकसभा में बहुमत न रहते हुए भी गठबंधन सरकार को विचारधारा के सवाल पर एकजुट रखते हुए देश को स्थिरता का प्रमाण देना सामान्य बात नहीं है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विचारक हैं)
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