यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलिंस्की ने हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में जितने स्पष्ट शब्दों में शांति की जरूरत स्वीकार करते हुए भारत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संभावित मध्यस्थ के रूप में रेखांकित किया, वह महत्वपूर्ण है। हालांकि दोनों पक्षों- यूक्रेन और रूस – के रवैये में उस तरह के लचीलेपन का संकेत अभी नहीं मिला है, जो शांति समझौते की बुनियादी शर्त है। पहले की कोशिश वैसे, जेलिंस्की अपने देश की तरफ से शांति सम्मेलन भी आयोजित कर चुके हैं, लेकिन उसे शांति की इच्छा से ज्यादा अपने अनुकूल माहौल बनाने की कोशिश के रूप में लिया गया। संभवत: इसीलिए उस सम्मेलन में शिरकत करने के बावजूद भारत ने संयुक्त वक्तव्य पर हस्ताक्षर तक नहीं किया। उसका साफ कहना था कि शांति का कोई भी समझौता दोनों पक्षों को शामिल किए बगैर संभव नहीं है। उम्मीद भी, गुस्सा भी इस बार वह इस रूप में एक कदम आगे बढ़े हुए दिख रहे हैं कि उन्होंने भारत जैसी संभावित मध्यस्थ शक्तियों की भूमिका पर ज्यादा जोर दिया है। हालांकि अभी भी भारत से उनकी सबसे बड़ी शिकायत यही है कि वह इस युद्ध में निष्पक्ष रुख अपनाए हुए है जबकि उसे पीड़ित यानी यूक्रेन के साथ खड़ा होना चाहिए। इसे युद्ध की ही विसंगति कहेंगे कि युद्धरत पक्ष मध्यस्थता की उम्मीद करते हुए भी मध्यस्थों के लिए जमीन उपलब्ध कराने को तैयार नहीं होते। वे यह नहीं समझते कि अगर कोई देश उनके साथ खड़ा होगा तो दूसरे पक्ष की नजर में दुश्मन हो जाएगा। फिर उस पर दूसरा पक्ष विश्वास नहीं करेगा और उसके मध्यस्थता करने की गुंजाइश समाप्त हो जाएगी। दबाव और अनिश्चितताफिर भी यह पॉजिटिव डिवेलपमेंट कहा जाएगा कि नाराजगी को दरकिनार करते हुए जेलिंस्की ने भारत से मध्यस्थता की अपेक्षा जताई है। इसके पीछे जहां हाल के महीनों में रूसी फौज का बढ़ता दबाव है, वहीं अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनजर पैदा हो रही अनिश्चितता की भी भूमिका है। माना जा रहा है कि अगर डॉनल्ड ट्रंप फिर से वाइट हाउस में वापसी करते हैं तो यूक्रेन को मिल रही मदद पर रोक लग सकती है। यह निश्चित रूप से जेलिंस्की के लिए चिंता की बड़ी वजह है। परदे के पीछेयुद्ध में एक पक्ष की चिंता अक्सर दूसरे पक्ष की उम्मीद बढ़ा दिया करती है। आश्चर्य नहीं कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन ने दो दिन पहले फिर कहा कि वह शांति समझौते के लिए यूक्रेन को किसी तरह की छूट नहीं देने जा रहे। मगर शांति की राह अक्सर ऐसी मुश्किलों के बीच से ही निकलती है। इसलिए परदे के पीछे शांति प्रयास तेज किए जाने की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता।
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