New Delhi, 15 जुलाई . भारत के सामाजिक इतिहास में 1856 एक महत्वपूर्ण वर्ष के रूप में दर्ज है, जब हिंदू विधवाओं के पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान की गई. 16 जुलाई 1856 को ब्रिटिश शासन के तहत हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 पारित हुआ, जिसने भारतीय समाज में प्रचलित रूढ़िवादिता को चुनौती दी और सामाजिक सुधार की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम उठाया. यह अधिनियम न केवल हिंदू विधवाओं के लिए एक नया अवसर लेकर आया, बल्कि यह सामाजिक परिवर्तन और लैंगिक समानता की दिशा में एक प्रगतिशील कदम भी था.
19वीं सदी में भारतीय समाज में हिंदू विधवाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय थी. विधवाओं को सामाजिक और धार्मिक रूढ़िवादिता के कारण कई तरह के कठोर नियमों का सामना करना पड़ता था. उन्हें पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी और उनकी जिंदगी अक्सर सामाजिक बहिष्कार, आर्थिक तंगी और मानसिक यातना से भरी होती थी. हालांकि सती प्रथा साल 1829 में राजा राममोहन राय के प्रयासों से प्रतिबंधित हो चुकी थी, लेकिन विधवाओं के प्रति समाज का दृष्टिकोण तब भी रूढ़िवादिता से भरा था. उस दौर में समाज सुधारकों ने इन अमानवीय प्रथाओं के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की थी.
इस ऐतिहासिक बदलाव के पीछे सबसे प्रमुख नाम था, पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर का. एक प्रख्यात समाज सुधारक और विद्वान, विद्यासागर ने हिंदू विधवाओं की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए अथक प्रयास किए. उन्होंने वेदों और शास्त्रों का गहन अध्ययन किया और तर्क दिया कि हिंदू धर्मग्रंथ पुनर्विवाह के खिलाफ नहीं हैं. उनके तर्कों और याचिकाओं ने ब्रिटिश सरकार को इस अधिनियम को पारित करने के लिए प्रेरित किया. विद्यासागर ने न केवल कानूनी बदलाव की वकालत की, बल्कि कई विधवाओं के पुनर्विवाह को व्यक्तिगत रूप से समर्थन भी दिया.
हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 ने विधवाओं को दोबारा विवाह करने का कानूनी अधिकार दिया. इस कानून के तहत, हिंदू विधवाओं का पुनर्विवाह वैध माना गया, और उनके बच्चों को भी वैधानिक रूप से मान्यता मिली. हालांकि यह अधिनियम लागू होने के बावजूद सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करना आसान नहीं था. रूढ़िवादी समाज ने इस बदलाव का विरोध किया और कई जगहों पर विधवाओं को सामाजिक तिरस्कार का सामना करना पड़ा. फिर भी यह कानून एक प्रगतिशील कदम था, जिसने बाद के सामाजिक सुधारों की नींव रखी.
इस अधिनियम ने भारतीय समाज में महिलाओं के अधिकारों और सामाजिक सुधारों के लिए एक नई दिशा प्रदान की. यह कानून न केवल विधवाओं के लिए एक नई शुरुआत का प्रतीक था, बल्कि यह लैंगिक समानता और मानवाधिकारों की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम था. इसके बाद कई अन्य समाज सुधारकों ने इस दिशा में काम किया.
1856 का हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम भारतीय समाज में एक क्रांतिकारी बदलाव का प्रतीक है. यह न केवल विधवाओं को सामाजिक और कानूनी रूप से सशक्त बनाने का प्रयास था, बल्कि यह समाज में रूढ़ियों को तोड़ने और मानवता को प्राथमिकता देने का भी एक उदाहरण था.
ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे समाज सुधारकों की इच्छाशक्ति और ब्रिटिश सरकार के सहयोग से यह संभव हो सका. आज भी यह अधिनियम हमें सामाजिक सुधार और समानता के लिए निरंतर प्रयास करने की प्रेरणा देता है.
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एकेएस/जीकेटी
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