महाभारत के युद्ध में 17वें दिन का दृश्य इतिहास का एक अत्यंत भावुक और महत्वपूर्ण क्षण था। इस दिन, कर्ण, जो एक वीर और दानवीर योद्धा था, का रथ अचानक धरती में धंस गया और अर्जुन के बाण से उसकी मृत्यु हो गई।कर्ण और दुर्योधन की मित्रता महाभारत के इतिहास में एक अनूठी और गहरी मित्रता की मिसाल है। कर्ण की मृत्यु ने दुर्योधन को भावनात्मक रूप से चकनाचूर कर दिया था, और इस घटना ने दुर्योधन के दिल को गहराई से छू लिया था।
कर्ण की मृत्यु के समाचार ने दुर्योधन को पूरी तरह से स्तब्ध कर दिया। दुर्योधन ने अपने मित्र की मौत पर गहरी पीड़ा व्यक्त की और उसकी याद में रोते हुए कहा, “मेरे मित्र! तुम्हारे बिना अब मेरा क्या होगा?” कर्ण की मृत्यु से दुर्योधन के जीवन में एक अपूरणीय कमी आ गई थी। अंग प्रदेश के राजा के बिना दुर्योधन ने सोचा कि वह न तो युद्ध कर सकेगा और न ही अपने साम्राज्य को सुचारू रूप से चला सकेगा।
कर्ण का पार्थिव शरीर
दुर्योधन ने कर्ण के पार्थिव शरीर के सामने बैठकर कई घंटों तक विलाप किया। इस दौरान उसने अपने मित्र के साथ बिताए गए बीते लम्हों को याद किया और कर्ण के अद्वितीय गुणों को श्रद्धांजलि अर्पित की। दुर्योधन ने अपने आंसुओं के बीच कहा कि कर्ण से बड़ा दानवीर इस संसार में कोई नहीं था। कर्ण की दानवीरता और वीरता ने केवल कौरवों को ही नहीं, बल्कि पांडवों को भी प्रभावित किया था। उसकी वीरता और उसकी दानशीलता ने उसे एक असाधारण व्यक्ति बना दिया था।
कर्ण की वीरता और दानवीरता
कर्ण ने युद्ध में कौरवों की ओर से भाग लिया था, लेकिन उसकी वीरता और दानवीरता ने श्रीकृष्ण तक को प्रभावित किया। श्रीकृष्ण ने कर्ण के अंतिम संस्कार का जिम्मा अपने ऊपर लिया, जो कर्ण की महानता और उसकी दानशीलता का आदर था। यह कर्ण की अमूल्य मित्रता, उसकी वीरता और उसकी दानशीलता की गाथा को संजोने का एक प्रयास था।
इस प्रकार, कर्ण की मृत्यु और दुर्योधन की विलाप ने हमें यह सिखाया कि सच्ची मित्रता और दानवीरता के मूल्य क्या होते हैं। महाभारत की यह कहानी एक अमूल्य दोस्ती और निस्वार्थता की प्रेरणा देती है, जो हमें जीवन के सबसे कठिन क्षणों में भी एक दूसरे के प्रति स्नेह और सम्मान का महत्व समझाती है।
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