रक्षिता, जो जन्म से दृष्टिहीन हैं, ने अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना किया है। वे याद करती हैं, "मेरे गाँव के लोग हमेशा कहते थे कि मैं बेकार हूँ।"
अब, 24 साल की उम्र में, रक्षिता भारत की प्रमुख पैरा एथलीटों में से एक बन चुकी हैं। वे गर्व से कहती हैं, "मुझे खुद पर गर्व है।"
कर्नाटक के चिकमंगलूर के एक छोटे से गाँव में जन्मी रक्षिता की माँ का निधन जब वे दो साल की थीं, और दस साल की उम्र में उनके पिता का भी निधन हो गया। उनकी परवरिश उनकी नानी ने की, जो खुद भी सुन और बोल नहीं सकतीं।
रक्षिता बताती हैं, "हम दोनों विकलांग हैं, इसलिए मेरी नानी मुझे बेहतर समझ पाती थीं।"
जब रक्षिता 13 साल की थीं, उनके खेल शिक्षक ने उन्हें बताया कि उनमें एक बेहतरीन धावक बनने की क्षमता है।
गाइड रनर की भूमिका
रक्षिता ने सोचा, "मैं कैसे दौड़ सकती हूँ?" उनके शिक्षक ने समझाया कि दृष्टिहीन धावक गाइड रनर के साथ दौड़ते हैं।
गाइड रनर और धावक के बीच एक टेदर होता है, जो उन्हें एक-दूसरे से जोड़े रखता है।
इस समझ के बाद, रक्षिता की ज़िंदगी में एक नया मोड़ आया।
राहुल का योगदान
कुछ समय बाद, राहुल बालकृष्ण ने रक्षिता की प्रतिभा को पहचाना। वे खुद एक मध्यम दूरी के धावक थे और रक्षिता के गाइड रनर बन गए।
राहुल ने गाइड रनर और कोच दोनों की भूमिका निभाई। उन्होंने रक्षिता को बेहतर ट्रेनिंग के लिए बेंगलुरु लाया।
वे बताते हैं, "हमें धावक को ट्रैक में मोड़ आने की जानकारी देनी होती है।"
सिमरन की सफलता सिमरन को भी पंख लगे
सिमरन शर्मा, जो थोड़ी दृष्टि देख सकती हैं, ने भी पैरालंपिक में सफलता पाई। उन्होंने अपने गाइड अभय के साथ कांस्य पदक जीता।
सिमरन ने बताया, "जब मैंने दौड़ना शुरू किया, तो मैं अकेले भागती थी।"
उनकी यात्रा में अभय का साथ महत्वपूर्ण रहा। उन्होंने गाइड रनिंग के लिए एक-दूसरे के साथ तालमेल बनाया।
सिमरन ने कहा, "हमने दौड़ के नियमों को समझा और गोल्ड मेडल जीता।"
सरकार की भूमिका सरकार क्या कर रही है?
हालांकि, गाइड रनर को मेडल तो मिलता है, लेकिन उनकी सहायता के लिए कोई ठोस योजना नहीं है।
पीसीआई के कोच सत्यनारायण ने कहा, "हम गाइड रनर की कुछ आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हैं।"
रक्षिता और सिमरन ने स्पॉन्सरशिप के माध्यम से अपने प्रशिक्षण का खर्च उठाया है।
वे चाहते हैं कि गाइड रनर को भी सरकारी नौकरियों में खेल कोटे का लाभ मिले।
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