विनोद बंसल
भारतीय चिंतन में संतों का सर्वोच्च स्थान है। जब कोई व्यक्ति अपने सांसारिक सुखों को त्याग कर आध्यात्मिक जगत के अन्वेषण में लग जाता है या यूं कहें लोक कल्याण हेतु अपने सारे जीवन की सुख-सुविधाएं छोड़ स्वयं को प्रभु को समर्पित कर देता है तब वह संत कहलाता है। हमने अपने जीवन में अनेक ऐसे संतों को सुना, दिखा और उनसे प्रेरणा ली होगी जो काम, क्रोध, लोभ अहंकार इत्यादि पर नियंत्रण कर समाज को प्रेरणा देते रहे। लेकिन, ऐसे संत आज के जमाने में विरले मिलते हैं जिन्होंने जीवन में कभी माइक या लाउडस्पीकर का प्रयोग किया। पंखे, कूलर, एसी का प्रयोग नहीं किया। चारपहिया गाड़ी की तो बात अलग, साइकिल और बैलगाड़ी तक में यात्रा नहीं की। बिजली से चलने वाले किसी प्रकार के यंत्र-सुविधाओं का जीवन में कभी प्रयोग नहीं किया। पैरों में जूते-चप्पल छोड़िए, खड़ाऊ तक नहीं पहनीं। सत्य निष्ठा का पालन और प्रतिवर्ष वर्षाकाल के चातुर्मास को छोड़ शेष 8 महीनों में एक स्थान पर एक महीने से अधिक वे रुके नहीं। ऐसे थे उनके कठोर सिद्धांत। इसके बावजूद, चाहे उत्तर भारत की झुलसा देने वाली गर्मी हो या हड्डियों तक को कंपकंपा देने वाली पहाड़ों की भीषण सर्दी, 25000 किलोमीटर से अधिक की यात्रा उन्होंने नंगे पांव पैदल चल कर जनता को धर्म, आध्यात्मिक और समाज जीवन के मूल्यों के प्रति जागृत, प्रेरित और संवेदनशील बनाया। ऐसे थे जैन मुनि श्री सुदर्शन लाल जी महाराज।
4 अप्रैल 1923 को रोहतक के सनातनी वैष्णव परिवार में जन्मे महाराज श्री का नाम ही परिजनों ने ईश्वर रखा था। ईश्वर यानी सर्वधार, सर्वगुण संपन्न, न्यायकारी, दयालु, निर्विकार, अभयकारी, समदर्शी और सबका कल्याण करने वाला। उन्होंने अपना यह नाम वास्तव में सार्थक किया। पूरा जीवन ईश्वर की आराधना व ईश्वरीय गुणों के प्रचार और जीवों के प्रति करुणा, संवेदना और उत्थान में लगा दिया। अपने 76 वर्षों के जीवनकाल में यूं तो शुद्ध शाकाहारी भोजन, अखंड ब्रह्मचर्य का पालन, सूर्यास्त के पश्चात भोजन-पानी की तो बात अलग, दवाई तक का सेवन नहीं किया। किसी प्रकार की धन-संपदा, बहुमूल्य वस्तु, जमीन-जायदाद या बैंक खाता इत्यादि नहीं रखा।
बेहद दुबला-पतला शरीर होने के बावजूद वृद्ध और रोगी वरिष्ठ संन्यासियों की घंटों तक पांव दबा कर और मालिश आदि से सेवा करने में वे कभी थके नहीं। वे जीवन में कभी किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय नहीं गए किंतु आश्चर्य है कि वे अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत, प्राकृत, उर्दू व फारसी जैसी 10 भाषाओं के मर्मज्ञ थे। अपना परिवार नहीं बनाया किंतु परिवारों के बनने-बिगड़ने के कारणों की गहन सूझबूझ के कारण उन्होंने अनेक परिवारों को टूटने से बचाया। मात्र 4 वर्ष की आयु में मां के दिवंगत हो जाने के कारण वे स्वयं तो मां के प्यार से सदैव वंचित रहे किंतु, हजारों भक्तों को उन्होंने मां जैसा प्यार दिया। वे स्वयं के दुखों पर कभी नहीं रोए किंतु जिस भक्त ने अपना दर्द अश्रुपूर्ण भाव से उनके चरणों में व्यक्त किया, उसके दुखों को उन्होंने जरूर हर लिया। जीवन में कभी बीपी, शुगर व हृदय संबंधी कोई रोग उनके दूर-दूर तक नहीं फटकीं क्योंकि उनकी जीवनचर्या और भोजन बेहद संयमित थे।
वे कहते थे कि व्यक्ति को विवेक और धैर्य सदैव जागृत रखने चाहिए। युवाओं के लिए उन्होंने कहा कि ऊंची उड़ान भरो किंतु पांव जमीन पर रखो। वृद्धावस्था के लोगों को एक संदेश उन्होंने दिया कि स्वयं से जुड़ो और दूसरों से बचो अर्थात परिवार में न्यूनतम हस्तक्षेप करो। उन्होंने कहा कि जवानी, धन, पद और विवेक इन चारों में से यदि किसी एक पर भी अंकुश नहीं रखा तो विनाश हो सकता है। यदि अपनी अहं भावनाओं को नियंत्रण रखोगे तो क्रोध स्वयं नियंत्रित हो जाएगा।
एक पर्यावरण विशेषज्ञ की भांति वे समझाते थे कि वाहनों और फैक्ट्री में तेल की बढ़ती खपत और भोजन में मांसाहार की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण वातावरण में विषैली गैसें यानी ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा बढ़ती जा रही है जिससे विश्व में ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। इसे रोकना बहुत जरूरी है।
राष्ट्रभक्ति, करुणा और समाजसेवा के विचार का बीजारोपण तो उनके बचपन में ही हो गया था। एक बार बिहार के बाढ़ पीड़ितों की सहायता हेतु उन्होंने अपनी गुल्लक तोड़ कर सारी जमा राशि उसके लिए दे दी थी। 1947 में भारत विभाजन के समय उन्होंने अपने प्रेम और सौहार्द भरे प्रवचनों के माध्यम से आसपास के क्षेत्र में बढ़ती द्वेष भावना को रोकने में अहम भूमिका निभाई। वह एक समाज सुधारक की भांति दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या और जातिगत भेदभाव के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने असंख्य टूटे परिवारों को जोड़ा और अपने भक्तों और उनके परिजनों को मृत्यु के उपरांत नेत्र और देहदान की सदैव प्रेरणा देते रहे। स्वशिक्षा, स्वदेशी, स्वच्छता और सदाचार उनके जीवन में तो सदैव साथ रहा ही किंतु, उनके भक्तों ने भी बड़ी संख्या में अंगीकार किया। वह कहते थे कि खूब कमाओ किंतु उसका कुछ हिस्सा जरूरतमंदों की सेवा में अवश्य लगाओ। संस्कार बचपन से ही बच्चों में डालो। आत्म निरीक्षण करो अपनी गलतियों को मानो, सुधारो और उनको दोहराने से बचो। जाति, मत, पंथ, संप्रदाय, रंग, भाषा, भूषा, भोजन, शिक्षा या क्षेत्र के आधार पर किसी भी प्रकार के विभाजन के वे प्रबल विरोधी थे।
ऐसे महान पूज्य संत ने अपने जीवन में तो असंख्य लोगों को प्रेरणा देकर उपकृत किया ही, 25 अप्रैल 1999 को उनके देवलोक गमन के बाद भी उनकी शिक्षाएं और जीवन शैली चिरकाल तक अनगिनत लोगों के जीवन को प्रकाश पुंज बन कर आलोकित करती रहेंगी। एक महा मानव को कोटि कोटि नमन..।
(लेखक, विहिप के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश
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