ब्राज़ील के रियो डी जनेरियो में 17वां ब्रिक्स शिखर सम्मेलन ख़त्म हो चुका है लेकिन इसकी चर्चा अब और अधिक हो रही है, जिसकी वजह हैं अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप.
दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले 10 देशों के इस संगठन के संस्थापक सदस्यों में भारत भी शामिल है.
रियो डी जनेरियो में संपन्न हुए हालिया ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के बाद एक घोषणापत्र जारी किया गया जिसके बाद डोनाल्ड ट्रंप की प्रतिक्रिया सामने आई. उन्होंने उन देशों को सीधी धमकी दी है जो 'ब्रिक्स की अमेरिका विरोधी नीतियों के साथ' चलेंगे.
अमेरिकी राष्ट्रपति ने ये धमकी ऐसे समय पर दी है जब कहा जा रहा है कि भारत और अमेरिका के बीच एक 'मिनी ट्रेड डील' की घोषणा कुछ ही दिनों में हो सकती है. साथ ही ट्रंप ने भी घोषणा की है कि अमेरिकी समयानुसार सोमवार, 7 जुलाई से कई देशों के साथ ट्रेड डील की घोषणा की जाएगी.
अब सवाल ये उठ रहे हैं कि ट्रंप की ब्रिक्स संगठन को दी गई धमकी के क्या मायने हैं? और संस्थापक सदस्य होने के नाते भारत के आगे क्या चुनौतियां हैं क्योंकि उसकी अमेरिका के साथ ट्रेड डील भी जल्द घोषित होने वाली है?
इन सभी सवालों के जवाब तलाशने से पहले ये जान लेना चाहिए कि किसने क्या कहा है?
ट्रंप ने क्या कहा और ब्रिक्स घोषणापत्र में क्या है?अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनेट्रुथ सोशल अकाउंट पर सोमवार को पोस्ट किया कि 'जो भी देश ख़ुद को ब्रिक्स की अमेरिका विरोधी नीतियों के साथ जोड़ता है, उस पर अतिरिक्त 10 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाया जाएगा. इस नीति में कोई छूट नहीं दी जाएगी. इस मामले पर ध्यान देने के लिए आपका धन्यवाद.'
ऐसा माना जा रहा है कि ब्रिक्स के रियो घोषणापत्र के बाद ट्रंप ने ये पोस्ट किया है. 17वां शिखर सम्मेलन 6 से 7 जुलाई को रियो डी जनेरियो में संपन्न हुआ है. इस बार के शिखर सम्मेलन का विषय- 'वैश्विक दक्षिण सहयोग को अधिक समावेशी और टिकाऊ शासन के लिए मज़बूत करना' था.
रियो घोषणापत्र में 'वैश्विक शासन में सुधार करने' से लेकर 'अंतरराष्ट्रीय स्थिरता' पर बात की गई है. इसके साथ ही इसमें एकतरफ़ा टैरिफ़ और नॉन-टैरिफ़ जैसे मुद्दों पर भी चर्चा की गई है.
ऐसा माना जा रहा है कि घोषणापत्र में इसी मुद्दे को लेकर डोनाल्ड ट्रंप ने टैरिफ़ लगाने की धमकी दी है. हालांकि घोषणापत्र में अमेरिका का नाम नहीं लिया गया है.
रियो घोषणापत्र में कहा गया है कि ब्रिक्स राष्ट्र एकतरफ़ा टैरिफ़ और नॉन-टैरिफ़ उपायों के बढ़ते इस्तेमाल पर गहरी चिंता व्यक्त करते हैं, ये उपाय व्यापार के तरीक़े को बिगाड़ रहे हैं और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के मानदंडों का उल्लंघन करते हैं.
इसके अलावा घोषणापत्र में ये भी कहा गया है कि एकतरफ़ा बलपूर्वक उपाय लागू करना अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन है और एकतरफ़ा आर्थिक प्रतिबंध जैसी कार्रवाइयों का हानिकारक असर पड़ता है.
बयान में डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुसार व्यापार की वकालत की गई है, साथ ही बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली की बात की गई है.
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वापस आते हैं अपने अहम सवाल पर कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 'ब्रिक्स की अमेरिका विरोधी नीति' को लेकर धमकी क्यों दी.
इस सवाल पर दिल्ली स्थित ट्रेड रिसर्च ग्रुप ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव (जीटीआरआई) के संस्थापक अजय श्रीवास्तव कहते हैं कि 'ट्रंप को हर चीज़ में लगता है कि अमेरिका के ख़िलाफ़ साज़िश हो रही है और इसमें कोई शक भी नहीं है कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था कमज़ोर हुई है.'
वह कहते हैं, "ट्रंप को लगता है कि सारे देश उनके उपनिवेश हैं. वह एकतरफ़ा अपनी नीतियां लागू करना चाहते हैं."
वहीं अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकार मंजरी सिंह ट्रंप की धमकी को लेकर कहती हैं कि कोई भी ऐसा संगठन जिसमें अमेरिका नहीं है, जैसे कि एससीओ या ब्रिक्स, उसे ट्रंप हमेशा से अमेरिका विरोधी मानते आए हैं.
ब्रिक्स के संस्थापक सदस्य देशों में भारत के साथ-साथ रूस और चीन भी है जो दुनिया की ताक़तवर अर्थव्यवस्थाओं में से एक हैं. रूस और चीन आपस में अपनी करेंसी में व्यापार करते रहे हैं और साल 2022 में रूस ने ब्रिक्स देशों के लिए एक नई अंतरराष्ट्रीय रिज़र्व करेंसी का प्रस्ताव दिया था.
मंजरी सिंह कहती हैं, "ब्रिक्स में हमेशा से एक ऐसे बैंकिंग सिस्टम की बात की जाती रही है जो डॉलर के पैरेलल हो. इस वजह से भी ट्रंप को ब्रिक्स अमेरिका विरोधी नज़र आता है. हालांकि इस बैंकिंग सिस्टम पर आज तक सहमति नहीं बन पाई है. इस संगठन के सदस्य देश उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं हैं. वह व्यापार पर निर्भर हैं और उनके लिए बैंकिंग सिस्टम पर बात करना भी ज़रूरी है."
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अजय श्रीवास्तव भी डॉलर की जगह किसी दूसरी करेंसी को अपनाने के विचार को ही ट्रंप के विरोध का आधार मानते हैं.
वह कहते हैं, "ब्रिक्स की कोई भौगोलिक इकाई नहीं है क्योंकि इसमें सब अलग-अलग विचारधाराओं वाले देश हैं. इस संगठन की कोई राजनीतिक ताक़त नहीं है लेकिन इसमें चीन जैसा ताक़तवर देश भी शामिल है जो इसे ख़ास बनाता है. ब्रिक्स के ताक़तवर न होते हुए भी ट्रंप इसे धमकी दे रहे हैं तो इसकी वजह रिज़र्व करेंसी का मुद्दा है. कोई भी देश अपनी करेंसी में व्यापार करने की बात कहता है तो अमेरिका इस तरह की बात करता है."
अमेरिका ने साल 2012 में ईरान और 2022 में रूस को सोसाइटी फ़ॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फ़ाइनेंशियल टेलीकॉम्युनिकेशन (स्विफ़्ट) सिस्टम से बाहर कर दिया था. इसका मतलब यह था कि अब ये देश डॉलर का आधिकारिक ट्रांज़ेक्शन नहीं कर सकते हैं.
अजय श्रीवास्तव कहते हैं कि दुनियाभर में डॉलर को मीडियम ऑफ़ एक्सचेंज के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है लेकिन देखा गया है कि अमेरिका उसका हथियार के रूप में (वेपनाइज़) इस्तेमाल करने लगा है.
"अमेरिका की रूस या ईरान के साथ दुश्मनी होती है तो अमेरिका ऐसा रास्ता बनाता है कि वह डॉलर न इस्तेमाल कर पाएं. चीन या रूस अपनी करेंसी में व्यापार कर रहे हैं तो इसकी वजह अमेरिका ही है जिसने डॉलर को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है."
क्या ब्रिक्स की कोई कॉमन करेंसी हो सकती है? इस सवाल पर अजय श्रीवास्तव कहते हैं कि यूरोप ने यूरो करेंसी बनाई लेकिन उनकी भी बहुत सारी समस्याएं हैं. अगर ब्रिक्स में कोई कॉमन करेंसी बनती है तो उसके लिए काफ़ी सोचना पड़ेगा. ये संगठन चीन केंद्रित है तो बहुत सारे देश एक कॉमन करेंसी में शायद ही दिलचस्पी दिखाएं.
वहीं, मंजरी सिंह कहती हैं कि 'कॉमन करेंसी या ब्रिक्स मनी पर सहमति बनना आसान नहीं है क्योंकि इसमें कई सारी दिक़्क़तें हैं और ये सीधे डॉलर को चुनौती देता है. कॉमन करेंसी के कई नुक़सान भी होते हैं क्योंकि अगर वह आपके पास बहुतायत में हो जाए तो उसका इस्तेमाल सिर्फ़ उन्हीं ख़ास देशों के साथ ही इस्तेमाल कर सकते हैं जिनके साथ आपका व्यापार है.'
रियो डी जनेरियो में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में रूस और चीन के राष्ट्रपतियों ने शिरकत नहीं की थी. इसके बाद ये भी कहा गया कि चीन और रूस की दिलचस्पी एससीओ जैसे संगठन में अधिक है.
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क्या ब्रिक्स संगठन कमज़ोर हो रहा है, इस सवाल पर अजय श्रीवास्तव कहते हैं, "मेरा मानना है कि ब्रिक्स कभी मज़बूत ही नहीं था, क्योंकि इसमें शामिल सभी देशों की कोई एक विचारधारा नहीं है. भौगोलिक तौर पर भी इनमें कोई समानता नहीं है. किसी रिसर्चर ने ये आइडिया दिया था और ये संगठन बन गया."
"हालांकि, ट्रंप की धमकियों से ब्रिक्स देशों को डरना नहीं चाहिए क्योंकि अगर आज ब्रिक्स को लेकर दी गई धमकी से देश डरेंगे तो कल ट्रंप किसी और चीज़ को लेकर भी धमका सकते हैं. अमेरिका जिस तरह से डील कर रहा है, उसके साथ उसी तरह से डील करना चाहिए क्योंकि अमेरिका बम गिराने नहीं जा रहा है. दोनों देशों को समान लाभ-हानि के सिद्धांत पर बात करनी चाहिए."
वहीं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफ़ेसर अपराजिता कश्यप कहती हैं कि ब्रिक्स के कमज़ोर पड़ने की संभावनाएं बेहद कम हैं क्योंकि ब्रिक्स प्लस में दुनिया की कुछ बड़ी अर्थव्यवस्थाएं और आर्थिक रूप से प्रभावशाली देश शामिल हैं.
इस सम्मेलन में शी जिनपिंग और पुतिन के शिरकत न करने पर अपराजिता कहती हैं कि ये कोई बड़ा मुद्दा नहीं है क्योंकि जिनपिंग का ध्यान इस समय चीन की घरेलू आर्थिक चुनौतियों को संभालने पर है, वहीं सुरक्षा कारणों से रूसी राष्ट्रपति ने अपनी यात्राओं को सीमित कर रखा है.
वहीं मंजरी सिंह कहती हैं कि ब्रिक्स को कमज़ोर या भारत समर्थित नहीं मानना चाहिए क्योंकि इसमें कई देश हाल में जुड़े हैं जिनकी चीन से भी नज़दीकी है. इस बार का एजेंडा गुड गवर्नेंस, एआई जैसे मुद्दों पर था, इस वजह से इस बार के शिखर सम्मेलन की अधिक चर्चा नहीं हुई.
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अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने दुनिया के अधिकतर देशों पर टैरिफ़ लगाने की घोषणा की थी. उन्होंने भारतीय सामानों पर 26 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाने की घोषणा की थी.
हालांकि, उन्होंने 9 जुलाई तक सभी टैरिफ़ पर रोक लगा दी थी लेकिन सभी देशों पर 10 फ़ीसदी की टैरिफ़ की दर को बरक़रार रखा था. ये तारीख़ जल्द ही ख़त्म होने वाली है और उससे पहले अमेरिका को अलग-अलग देशों के साथ ट्रेड डील फ़ाइनल करनी है.
ट्रंप ने ट्रुथ सोशल की अपने पोस्ट में घोषणा की है कि सोमवार से वह सभी देशों के साथ ट्रेड डील की घोषणा करेंगे. ऐसी रिपोर्ट्स हैं कि अमेरिका और भारत के बीच एक मिनी ट्रेड डील पर सहमति बन गई है.
लेकिन ट्रंप के ब्रिक्स देशों पर टैरिफ़ लगाने की घोषणा के बाद क्या इसका असर भारत पर भी पड़ेगा. इस सवाल पर अजय श्रीवास्तव कहते हैं कि ब्रिक्स के बहुत सारे देश भारत समेत अमेरिका से ट्रेड टॉक कर रहे हैं. भारत ने फ़िलहाल 10 फ़ीसदी टैरिफ़ को स्वीकार कर लिया था लेकिन जो 26 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाने की बात कही गई है, उस पर अभी आख़िरी फ़ैसला होना है. भारत कृषि और डेयरी उत्पादों को लेकर अमेरिका की बात मानने को राज़ी नहीं है.
"अमेरिका आज जिस तरह सोच रहा है वह कभी भी फ़ाइनल डील नहीं होगी, क्योंकि आज वह कुछ कहता है और कल कुछ और कहता है. उदाहरण के तौर पर अमेरिका का वियतनाम के साथ एफ़टीए (फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट) पिछले 20-25 साल से सफलतापूर्वक चल रहा था लेकिन उसे तुरंत ख़त्म कर दिया गया."
अपराजिता कश्यप कहती हैं कि अगर ब्रिक्स देशों की वजह से ट्रंप भारत पर टैरिफ़ लगाते हैं तो उसके आईटी, फ़ार्मास्युटिकल्स या टेक्सटाइल जैसे उद्योगों को ख़ासा नुक़सान सहना पड़ेगा.
वह कहती हैं कि अमेरिका का दबाव भारत को ब्रिक्स और ग्लोबल साउथ जैसे मंचों में दोबारा गंभीरता से निवेश करने के लिए प्रेरित कर सकता है, हालांकि भारत के सामने चीन के प्रभुत्व वाले मंचों पर अधिक निर्भरता से बचने की भी चुनौती होगी.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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