बतौर अभिनेता धर्मेंद्र का ये डायलॉग याद है आपको, "किसी भी भाषा का मज़ाक उड़ाना घटियापन है और मैं वही कर रहा हूँ."
फिर डेविड का वो जवाब, "अरे बरख़ुर्दार तुम भाषा का मज़ाक नहीं कर रहे हो. एक आदमी का मज़ाक कर रहे हो. भाषा अपने आप में इतनी महान होती है कि उसका मज़ाक किया ही नहीं जा सकता."
अपने आप में ये वाक्य काफ़ी गंभीर सुनाई पड़ता है, लेकिन जब आप धर्मेंद्र और डेविड के बीच इस डायलॉग को ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म 'चुपके चुपके' में सुनते हैं तो न सिर्फ़ ये डायलॉग बल्कि पूरी फ़िल्म ही आपको हंसाती है.
चुपके चुपके 50 साल पहले 11 अप्रैल 1975 में रिलीज़ हुई थी. इसे आज भी क्लासिक फ़िल्मों में गिना जाता है, तो इसकी कुछ वजहें हैं.
बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ करें
भाषा के इर्द गिर्द बनी इस फ़िल्म में शुद्ध हिंदी बोलने का नाटक करने वाले धर्मेंद्र के संवाद कमाल के हैं.
धर्मेंद्र ख़ुद को ड्राइवर नहीं वाहन चालक बताते हैं, ट्रेन को लौह पथ गामिनी बोलते हैं. यहां तक कहते हैं कि भोजन तो हमने लौह पथ गामिनी स्थल पर ही कर लिया था.
जब हाथ धोने होते हैं, तो कहते हैं कि 'मैं हस्त प्रक्षालन करके आता हूँ.'
बात-बात में कहते हैं कि हिंदी बोलते समय हम अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग उचित नहीं समझते.
चुपके चुपके उस जॉनर की फ़िल्मों की बेहतरीन मिसाल है, जिसमें कॉमेडी है लेकिन ये न फूहड़ है, न इसमें डबल मीनिंग डायलॉग हैं. फ़िल्म जिसमें हँसी के फ़ुव्वारे और सादगी है.
गुलज़ार के स्क्रीनप्ले वाली इस फ़िल्म की कहानी साधारण-सी है. बॉटनी के प्रोफ़ेसर परिमल त्रिपाठी (धर्मेंद्र) और बॉटनी की छात्रा सुलेखा (शर्मिला टैगोर) की शादी हो जाती है.
शर्मिला की बहन और जीजा जी उस शादी में शामिल नहीं हो पाते हैं.
शादी के बाद धर्मेंद्र को पता चलता है कि शर्मिला अपने 'जीनियस जीजा' जी यानी ओमप्रकाश को बहुत ज़्यादा मानती हैं.
मज़ाक मज़ाक में धर्मेंद्र तय करते हैं कि वो अपनी पत्नी को दिखाएंगे कि जीजा जी (ओम प्रकाश) इतने भी जीनियस नहीं हैं.
जीजा जी के साथ इस खेल में ज़रिया बनती है भाषा, क्योंकि ओम प्रकाश हिंदी के इस्तेमाल को लेकर कुछ ज़्यादा ही संजीदा हैं और उन्हें हिंदी बोलने वाला इलाहाबादी ड्राइवर ही चाहिए.
'सीयूटी कट है तो पीयूटी पुट क्यों'धर्मेंद्र यानी प्रोफ़ेसर परिमल त्रिपाठी, जीजा जी (ओमप्रकाश) के यहाँ ड्राइवर प्यारे मोहन बनकर चले जाते हैं और यहीं से सब गोलमाल शुरू होता है.
जल्द ही ड्राइवर प्यारे मोहन यानी प्रोफ़ेसर त्रिपाठी (धर्मेंद्र) अपनी शुद्ध हिंदी से पहले तो ओमप्रकाश को प्रभावित करते हैं और बाद में ओम प्रकाश इसी बात से परेशान हो जाते हैं.
अंग्रेज़ी की भी ऐसी नुक्ता चीनी करते हैं कि ओमप्रकाश को भी जवाब नहीं सूझता.
मसलन ड्राइवर बने धर्मेंद्र ओमप्रकाश से कहते हैं, 'अंग्रेज़ी बहुत ही अवैज्ञानिक भाषा है साहेब. सीयूटी कट है पर पीयूटी पुट है. टीओ टू, डीओ डू ,पर जीओ गो हो जाता है. जीओ गू क्यों नहीं होता?'
हिंदी और अंग्रेज़ी के चुनिंदा शब्दों और वाक्यों को समेटकर उन्हें चुटीले अंदाज़ में फ़िल्म में समाहित करना गुलज़ार का कमाल था.
आज के दौर में भाषा को लेकर कई तरह के विवाद सामने आए हैं.
ऐसे में ये फ़िल्म दर्शाती है कि कोई भी भाषा बड़ी या छोटी नहीं होती, वो बस आपस में संवाद करने का ज़रिया होती है.
आज के माहौल में देखें तो लगता है कि कितने सहज और हल्के फुल्के अंदाज़ में फ़िल्म एक संदेश दे जाती है.
चुपके चुपके की कई बातें ताज़ा हवा के झोंके की तरह थीं.
प्यार में पहल करती शर्मिला टैगोरमसलन धर्मेंद्र और शर्मिला टैगोर का रोमांस. किसी कारणवश प्रोफेसर परिमल यानी धर्मेंद्र चौकीदार बनने का नाटक कर रहे हैं, जिसे शर्मिला टैगोर पकड़ लेती हैं.
शर्मिला टैगौर टिप के बहाने एक चिट चौकीदार यानी धर्मेंद्र को देती हैं, जिसमें वो चुपके चुपके अपना पता भी दे देती हैं.
70 के दौर में बन रही फ़िल्मों में ऐसा कम ही दिखाया जाता था, जब रिश्ते में पहल या प्रस्ताव लड़की की तरफ़ से आए.
पूरी फ़िल्म की अफ़रा-तफ़री में ये छोटा सा किस्सा दब सा जाता है, लेकिन ये है बहुत अहम.
ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों की एक ख़ासियत रही है कि इनमें कई सारे छोटे-बड़े किरदार होते हैं. चुपके चुपके में भी धर्मेंद्र-शर्मिला टैगौर के अलावा डेविड, ओम प्रकाश, अमिताभ बच्चन, जया भादुड़ी, असरानी, केष्टो मुखर्जी, लिली चक्रवर्ती और उषा किरण है.
सब किरदारों को सलीके से कहानी में जगह देना ऋशिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों को ख़ास बनाता है.
जब चुपके चुपके रिलीज़ हुई तो अमिताभ बच्चन को लोग एंग्री यंग मैन के तौर पर जानने लगे थे.
धर्मेंद्र भी अनुपमा, सत्यकाम जैसी फ़िल्मों में हुनर दिखा चुके थे, लेकिन कॉमेडी में उनका कमाल लोगों ने कम ही देखा था.
ऐसे साल में जब दोनों शोले में दिखाए दिए, उसी साल में ऋषिकेश मुखर्जी ने धर्मेंद्र और अमिताभ को ज़बरदस्त कॉमिक अंदाज़ में पेश किया.
कॉमेडी में ये शायद धर्मेंद्र की सबसे बेहतरीन फ़िल्मों में से एक थी. बहुत कम निर्देशकों ने धर्मेंद्र की इस कॉमिक टाइमिंग का इस्तेमाल किया और उनकी पहचान ही-मैन की ही रही.
किरदारों का कॉमेडी ऑफ़ एरर
चुपके चुपके के बेहतरीन दृश्यों में से एक है धर्मेंद्र यानी बॉटनी प्रोफ़सर त्रिपाठी और अमिताभ यानी अंग्रेज़ी के प्रोफेसर सुकुमार की जुगलबंदी.
दिक़्क़त ये है कि अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर अमिताभ बच्चन को जया भादुड़ी (वसुधा) से प्यार हो जाता है, लेकिन अमिताभ को शर्मिला टैगोर के पति का नाटक करना पड़ता है.
प्यार का इज़हार न कर पाने से परेशान अमिताभ बच्चन कहते हैं, "मैं वसुधा (जया भादुड़ी) को पढ़ाने जाता हूँ, मैं बन के नहीं तुम (धर्मेंद्र) बनके. तुम बनके जो कहता हूँ वो समझती हैं कि मैं कह रहा हूँ. कहता मैं ही हूँ..लेकिन वो मैं जो तुम हो और जो तुम हो वो मैं हूँ."
फ़िल्म के आख़िर में ओमप्रकाश को समझ में आता है कि भाषा के चक्कर में वे बेवकूफ़ बन गए. और शुद्ध हिंदी बोलने वाला उनका ड्राइवर, दरअसल बॉटनी का प्रोफ़ेसर है.
वैसे तो ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्में सरल और सादी दिखती हैं, लेकिन अगर उनमें छिपे प्रतीकों को पढ़ा जाए तो बहुत सारे मायने निकलते हैं और उस समय के राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों का पता भी चलता है.
जब ट्रंक कॉल पर बात करते - करते फ़ोन कॉल बीच में ही कटने पर चिढ़े हुए असरानी बोलते हैं, 'ये टेलीफ़ोन वाले भी न. इनको सुधारने का एक ही तरीक़ा है मीसा.'
मीसा वो विवादित क़ानून है, जो 1971 में पारित किया गया था, जिसके तहत क़ानून व्यवस्था बनाये रखने वाली संस्थाओं को बहुत अधिक अधिकार दिये गये थे. इमरजेंसी के दौरान ये ख़ूब चर्चा में आया.
चुपके चुपके का एक और सीन है, जब कॉलेज छात्राएँ चौकीदार को सामान उठाने के लिए कहती हैं.
ऐसे में शर्मिला टैगोर टोकते हुए कहती हैं कि चौकीदार बेचारा अकेला कैसे उठाएगा. और उनकी सहेलियाँ चिढ़ाते हुए कहती हैं, 'लो आई अपनी कम्युनिस्ट.'
चुपके चुपके से सामाजिक ताना बुनती कहानी
बहुत ही महीन तरीक़े से ऋषिकेश मुखर्जी मध्यवर्गीय सामाजिक ताने-बाने को भी दर्शाते हैं.
जब शर्मिला टैगोर अपने ड्राइवर (धर्मेंद्र) के साथ गाड़ी में आगे बैठ कर जाती है, तो ये घर में चर्चा का विषय बन जाता है, क्योंकि समाज में अनकहा सा नियम है कि मालिक या मालकिन हमेशा पीछे बैठते हैं.
मज़ाक मज़ाक में ही सही, जब एक लड़की (शर्मीला टैगोर) घर के ड्राइवर (धर्मेंद्र) के साथ भाग जाती है, तो ये बात एक मध्यवर्गीय परिवार को उलट पुलट कर रख देती है.
पिछले 50 सालों से इस फ़िल्म ने कल्ट स्टेटस अख़्तियार कर लिया है.
फ़िल्म की कहानी उपेंद्रनाथ गांगुली ने लिखी थी और फ़िल्म की सफलता में स्क्रीनप्ले का बहुत कमाल है जिसे गुलज़ार और डीएन मुखर्जी ने लिखा था.
फ़िल्म के गाने काफ़ी मधुर हैं, जिसमें संगीत एसडी बर्मन का था और गीत आनंद बख़्शी ने लिखे थे.
वैसे ये फ़िल्म पहले 1971 में छदमबेशी नाम से बांग्ला में बन चुकी थी, जिसमें उत्तम कुमार और माधवी मुखर्जी थे.
चुपके चुपके आपको ख़ूब हँसाती है, मनोरंजन करती है और हँसी मज़ाक में ये भी सिखाती है कि विचारधारा को लेकर अड़ियल होने से अक्सर ही अव्यवहारिक और हास्यास्पद नतीजे सामने आते हैं.
जैसा कि फ़िल्म के आख़िर में ओम प्रकाश दर्शकों से मुखातिब होकर कहते हैं, "इस उम्र में जो बेइज़्ज़ती होनी थी, वो तो हो गई मगर आप जनता जनार्दन हैं, बाहर जाकर किसी से मत कहिएगा कि मैं उल्लू बन गया. नमस्ते."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां कर सकते हैं. आप हमें , , और पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)
You may also like
अरुणाचल प्रदेश में दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करेगा आईबीसी
असमिया नववर्ष पर नलबाड़ी में महायज्ञ, मुख्यमंत्री हिमंत ने की प्रार्थना
सीईआईआर पोर्टल के उपयोग से पूसीरे को मिली बड़ी सफलता
भोपाल की 45 स्वास्थ्य संस्थाएं नेशनल क्वालिटी एश्योरेंस स्टैंडर्ड सर्टिफाइड
मप्र में जल स्रोतों के संवर्धन और संरक्षण के लिये आयोजित हो रही विविध गतिविधियां