इंडियन मेडिकल एसोशिएशन (आईएमए) के अध्यक्ष डॉ. आरवी अशोकन के भ्रूण के लिंग की जाँच को वैध बनाने के बयान ने एक नई बहस शुरू कर दी है.
रविवार को गोवा में एक कार्यक्रम के दौरान आरवी अशोकन ने कहा था, ‘’30 साल बीत चुके हैं लेकिन क़ानून से क्या हुआ? क्या इससे लिंगानुपात पलट पाए? कुछ जगहों पर इस क़ानून का प्रभाव हुआ होगा.’’
डॉक्टर अशोकन की इस राय को लेकर विशेषज्ञों के मत बंटे हुए हैं.
लेकिन बीबीसी से बातचीत में डॉक्टर अशोकन ने इस बात पर ज़ोर दिया कि मौजूदा क़ानून को रद्द कर ऐसा क़ानून लाया जाना चाहिए, जिससे भ्रूण के लिंग के बारे में पता चल सके और लड़की होने पर ये सुनिश्चित किया जाए कि वो इस दुनिया में आए.
उन्होंने कहा कि गर्भपात कराने के लिए कई लोग ज़िम्मेदार होते हैं लेकिन पीसी-पीएनडीटी (प्री-कॉन्सेप्शन एंड प्री नेटल डॉयगोस्टिक टेक्निक्स एक्ट) में डॉक्टर को ही ज़िम्मेदार माना जाता है.
पीसी-पीएनडीटी एक्ट के तहत गर्भधारण के दौरान भ्रूण के लिंग का पता लगाने की तकनीक को ग़ैर क़ानूनी बनाया गया था. ये क़ानून 30 साल पहले 1994 में लाया गया था.
वे सवाल उठाते हुए कहते हैं कि इस क़ानून को लागू हुए दशकों बीत चुके हैं, लेकिन लिंगानुपात बराबर नहीं हो पाया है.
BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए करें. BBCआरवी अशोकन के अनुसार, कुछ इलाकों में क़ानून की बजाय सामाजिक जागरूकता के कारण सुधार आया है लेकिन पीसी-पीएनडीटी क़ानून डॉक्टरों के लिए नुक़सानदेह रहा है.
वह कहते हैं, "आप गाइनोकॉलिजस्ट या रेडियोलॉजिस्ट से बात करके देखिए वे बताएंगे कि कैसे उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा. हो सकता है दो या पांच फ़ीसदी डॉक्टर ये कर रहे हों लेकिन इसके लिए पूरे मेडिकल जगत को इस वजह से प्रताड़ित किया जा रहा है."
हालांकि उनके इस बयान पर जानकारों का कहना है कि आईएमए के अध्यक्ष होने के नाते उन्हें मेडिकल के आदर्श सिद्धांतों को बढ़ावा देना चाहिए न कि इसे वैध बनाने की बात करनी चाहिए.
साल 1994 में पीसी-पीएनडीटी अधिनियम लागू किया गया था और साल 2003 में इसमें संशोधन करके और प्रभावी तरीक़े से लागू किया गया.
इस क़ानून का उद्देश्य भ्रूण की लिंग जांच को रोकना था ताकि कन्या भ्रूण हत्या पर लगाम लगाई जा सके.
वहीं इस क़ानून का उल्लंघन करने वालों के लिए दंड का प्रावधान भी किया गया है.
वर्षा देशपांडे, महाराष्ट्र में लड़कियों के बेहतर भविष्य के लिए स्वयंसेवी संस्था 'लेक लड़की अभियान' चला रही हैं. साथ ही वे पीसी-पीएनडीटी की दो समितियों में भी हैं.
वर्षा देशपांडे बीबीसी से बातचीत में कहती हैं, "आईएमए के अध्यक्ष हवा में बातें कर रहे हैं और उन्हें इस पद की गरिमा को देखना चाहिए."
उन्होंने कहा, "अगर उन्हें लगता है कि किसी डॉक्टर को ग़लत फँसाया जा रहा है तो वो शिकायत कर सकते हैं. हालांकि ये सच्चाई है कि डॉक्टर भ्रूण जांच करते हैं."
वर्षा देशपांडे के अनुसार, ''आईएमए के अध्यक्ष को ऐसे भ्रष्ट डॉक्टरों और अधिकारियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए जो क़ानून होने के बावजूद ऐसे काम कर रहे हैं और जो डॉक्टर इसमें लिप्त हैं उन्हें बचा रहे हैं.’’
वह अपनी चिंता ज़ाहिर करते हुए कहती हैं, ''अगर इस जांच को वैध किया जाता है तो महिलाएं इसके लिए कतार में लग जाएंगी. वे घर तक भी नहीं पहुंचेंगी, दवाएं खा कर भ्रूण को गिरवाएंगी और ज़्यादा ख़ून जाने से उनकी मौत होगी या फिर गर्भपात कराएंगी. ऐसी दवाएं आसानी से मिल सकती हैं और अभी भी अवैध रूप से स्थापित क्लिनिकों में नकली डॉक्टर चोरी छिपे ये जांच कर, गर्भापात करा रहे हैं.''
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फ़ॉर पॉपुलेशन साइंसेज़ में प्रोफ़सर एसके सिंह का कहना है कि डॉक्टर अगर ग़लत करेंगे तो कार्रवाई होगी,
उन्होंने कहा कि आईएमए के अध्यक्ष केवल डॉक्टरों के बारे में सोच रहे हैं लेकिन इसे महिलाओं के नज़रिए से भी देखना चाहिए.
प्रोफ़ेसर एसके सिंह इस संस्था के सर्वे रिसर्च एंड डेटा एनॉलिटिक्स के प्रमुख भी हैं.
एसके सिंह कहते हैं, ''अभी भी समाज के कई हिस्सों में बहुओं पर बेटा पैदा करने का दबाव होता है. अगर पहली लड़की हो जाती है तो जब तक महिला की जान पर न बन आए, भ्रूण की जांच कराई जाती है और गर्भपात कराए जाते हैं.''
साल 1991 में की गई जनगणना के मुताबिक लिंगानुपात में थोड़ी बेहतरी देखी गई.
जहां 1991 में 1000 लड़कों पर 926 लड़किया थीं वहीं साल 2011 में ये बढ़कर 1000 लड़कों के मुकाबले 943 लड़कियां हो गईं.
नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे-4 में जहां प्रति 1000 पुरुषों की तुलना में 919 महिलाएं थीं तो सर्वे-5 में उनकी संख्या 929 थी. (0- 5 साल तक के उम्र के बच्चों का लिंगानुपात )
हालांकि डॉ. आरवी अशोकन बताते हैं, "ये बढ़ोतरी बहुत कम है और पीसी-पीएनडीटी क़ानून कन्या भ्रूण हत्या को रोकने में प्रभावशाली नहीं रहा है."
वह कहते हैं, "आईएमए की सेंट्रल वर्किंग कमेटी ने दो हफ़्ते पहले ये अंतिम फ़ैसला किया है कि मेडिकल जगत इस बात पर सहमति जताता है कि लड़कियों को बचाया जाना चाहिए. लेकिन पीसी-पीएनडीटी का मौजूदा स्वरूप मेडिकल क्षेत्र में काम करने वालों के लिए अन्यायपूर्ण है."
लेकिन यहां ये सवाल उठता है कि अगर भ्रूण के लिंग का पता चल जाए और उसके बाद अगर दंपती गर्भपात करा लेते हैं तो कन्या भ्रूण हत्या पर कैसे लगाम लग पाएगी?
क्योंकि ऐसे कई क्लिनिक अवैध रूप से चलाए जा रहे हैं जो ऐसे गर्भपात करा रहे हैं.
लिंग अनुपात को लेकर चिंता BBCडॉ. आरवी अशोकन का कहना है, ''जब अल्ट्रासाउंड होता है तो आप उसकी रिपोर्ट को डेटाबेस में अपलोड करें और बताएं कि भ्रूण में पल रही एक बच्ची है. वहीं एक फॉर्म एफ़ भी भरा जाता है. ये डेटा सरकार के पास जाता है. समय-समय पर गर्भवती महिला और भ्रूण के स्वास्थ्य को लेकर जांच होती है और गर्भधारण के बीच में अगर पता चलता है कि सब कुछ ठीक होने के बावजूद गर्भपात हुआ है तो पता चल जाएगा कि ये क्यों हुआ है.''
वे तर्क देते हुए पूछते हैं, "ये बताइए कि फ़िलहाल जब बच्चे का लिंग नहीं बताया जाता है तो आप ये कैसे कह सकते हैं कि लड़की थी इसलिए गर्भपात करा दिया गया?"
डॉ. आरवी अशोकन आगे कहते हैं, "जब भ्रूण में पल रहे बच्चे का डेटा राज्य सरकार के पास चला जाता है तो ऐसे में उनकी ज़िम्मेदारी बच्ची की सुरक्षा को लेकर बढ़ जाती है. कन्या भ्रूण हत्या को कम करने का एक प्रोएक्टिव तरीक़ा है. कन्या भ्रूण हत्या अपराध है लेकिन भ्रूण का पता लगाना नहीं है."
वहीं प्रो एसके सिंह कहते हैं , ''पीसी-पीएनडीटी क़ानून की वजह से पिछले डेढ़ दशक में लिंगानुपात में जो सुधार आया है, अध्यक्ष के प्रस्ताव से ये ख़तरा है कि वो रिवर्स हो जाएगा. ये आपराधिक सोच है और डॉ. अशोकन केवल डॉक्टरों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं."
"आज अगर किसी महिला की दो बेटियां हैं उनमें से 63 फ़ीसदी तीसरा बच्चा नहीं चाहती. दक्षिण में ये 80 फ़ीसदी है. वहीं उत्तर में 60 फ़ीसदी तक है. हम जनसांख्यिकी विशेषज्ञ इस बात से खुश हैं कि क़ानून मदद कर रहा है.''
प्रोफ़ेसर एसके सिंह कहते हैं, "आर्थिक लाभ के लिए भ्रूण के लिंग की जांच डॉक्टर करें और जब भ्रूण के जान बचाने की बात आए तो वो सरकार करे. इस बात का कोई तर्क ही नहीं है."
महिलाओं को सशक्त करने वाली संसदीय समिति ने लोकसभा में अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए बताया था कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ स्कीम के तहत 80 फ़ीसदी फंड का इस्तेमाल हो चुका है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' स्कीम की शुआत साल 2015 में की थी.
इस स्कीम का मक़सद बाल लिंगानुपात को सुधारना, जेंडर के आधार पर होने वाले भेदभाव और महिलाओं का सशक्त करना था.
इसकी शुरुआत में 100 करोड़ रुपए की फंडिंग की गई थी और समय-समय पर इसमें आर्थिक आवंटन बढ़ता गया है.
भारतीय समाज में लड़के और लड़कियों को समान अधिकार देने की सोच में तब्दीली आई है लेकिन उसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि सोच में पूरी तरह से बदलाव आने में समय लगेगा.
वर्षा देशपांडे का कहना है कि पीसी-पीएनडीटी क़ानून की वजह से हरियाणा, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में लिंगानुपात सुधरा है.
डॉक्टर आरवी अशोकन कहते हैं, "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ एक सुंदर नारा है. अगर लड़कियों को सशक्त किया जाएगा तो समाज में बदलाव दिखने लगेगा. ये एक बड़ा काम है लेकिन उसके लिए डॉक्टरों को ज़िम्मेदार क्यों बताया जाए."
वो कहते हैं, "वे अपना प्रस्ताव स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के पास लेकर जाएंगे और बताएंगे कि अगर सरकार क़ानून नहीं बदलना चाहती तो डॉक्टरों को प्रताड़ित करने वाले बिंदुओं को हटा दें."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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