"आप गाड़ी चलाते रहें और बाईं तरफ़ जंगल की ओर देखें. आपको हमारा कैम्प दिखेगा. वहीं मेरा इंतज़ार करना."
यह शब्द हैं बस्तर में तैनात एक सीनियर पुलिस अफ़सर के.
हथियारबंद टकराव का गवाह रहा ये इलाक़ा सात ज़िलों में फैला है. इसे लंबे समय से हथियारबंद माओवादियों के ख़िलाफ़ भारत सरकार की लड़ाई का केंद्र माना जाता है.
पिछले 25 सालों में इस हिंसा की वजह से, अलग-अलग राज्यों में चार हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए हैं.
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केंद्रीय अमित शाह ने दावा किया है कि '31 मार्च 2026 तक नक्सलवाद' पूरी तरह समाप्त कर दिया जाएगा.
हथियारबंद माओवादियों से संघर्ष में बस्तर में 'डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड' (डीआरजी) फ्रंटलाइन पर है.
जिस कैम्प के बारे में एक अफ़सर हमसे बात कर रहे थे वहाँ इसी डीआरजी की टीमों ने ठिकाना बनाया है.
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बीबीसी की टीम को पुलिस अधिकारियों की निगरानी में डीआरजी के कैंपों में जाने, उनके सदस्यों से मिलने और बात करने की इजाज़त दी गई. दरअसल, डीआरजी में स्थानीय लोग और आत्मसमर्पण कर चुके माओवादी भी शामिल हैं.
जहाँ सरकारी अधिकारी डीआरजी को माओवादियों के ख़िलाफ़ प्रभावशाली बताते हैं वहीं उनके कामकाज के तरीकों पर सवाल भी उठते रहे हैं.
इलाक़े के कई लोग और सामाजिक कार्यकर्ता डीआरजी पर 'फ़र्जी मुठभेड़ों' और 'ज़्यादती' के इल्ज़ाम भी लगाते हैं.
इस फ़ोर्स के बारे में जानने-समझने और इस संघर्ष के बीच यहाँ रहने वाले आदिवासी समुदाय का हाल जानने हम बस्तर के कई ज़िलों के कई दुर्गम इलाक़ों में गए.
कानूनों और सुरक्षा का ध्यान रखते हुए डीआरजी के सदस्यों की पहचान ज़ाहिर नहीं की जा रही है.
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हम डीआरजी टीम के एक कमांडर से मिले. हमने जानना चाहा कि उनकी फ़ोर्स बाक़ी बलों की तुलना में कैसे अलग है?
उनका जवाब था, "हम यहीं के हैं. हमें इन जंगलों और रास्तों की अच्छी जानकारी है. बाक़ी बलों को पूछना पड़ता है. यही बुनियादी फ़र्क़ है."
पुलिस अफ़सरों ने भी बताया कि डीआरजी के जवान इस इलाक़े के आदिवासी समुदाय की भाषाएँ जानते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि हथियारबंद माओवादियों की रणनीतियों को समझने और उनके छिपने की जगहों का पता लगाने में डीआरजी में काम कर रहे पूर्व माओवादी अहम भूमिका निभाते हैं.
शुरुआत में तो डीआरजी के जवान हमसे बात करने से हिचकिचा रहे थे लेकिन बाद में उन्होंने इस संघर्ष और अपने जीवन के बारे में खुलकर बात की.
डीआरजी के गठन से पहले
हथियारबंद संघर्ष वाले इलाक़े में स्थानीय आदिवासी समुदाय लोगों की भर्ती का विचार नया नहीं है.
छत्तीसगढ़ सरकार ने साल 2005 में डीआरजी से पहले 'स्पेशल पुलिस ऑफ़िसर्स' (एसपीओ) की भर्ती की थी, जो स्थानीय लोग ही थे, इस अभियान को नाम दिया गया था 'सलवा जुड़ुम'.
सलवा जुड़ुम का मामला सुप्रीम कोर्ट में गया जहाँ अदालत ने साल 2011 में इसे संविधान के ख़िलाफ़ बताया.
सुप्रीम कोर्टने छत्तीसगढ़ सरकार को आदेश दिया था कि हथियारबंद माओवादियों के ख़िलाफ़ स्पेशल पुलिस ऑफ़िसर्स (एसपीओ) का इस्तेमाल न किया जाए.
अदालत का कहना था कि माओवादियों के ख़िलाफ़ लड़ाई में स्थानीय आदिवासियों का इस्तेमाल ग़लत तरीक़े से किया जा रहा था.
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छत्तीसगढ़ में डीआरजी का गठन साल 2015 में हुआ है. हथियारबंद माओवाद से प्रभावित ज़िले की पुलिस के पास डीआरजी की कई टीमें होती हैं. हमें बताया गया कि डीआरजी के जवानों को तनख़्वाह और बाकी सुविधाएँ, स्थानीय पुलिस जैसी ही हैं.
फ़र्क़ उनके काम में है. डीआरजी को ज़्यादातर कॉम्बैट ऑपरेशनों या मुठभेड़ों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. रोज़मर्रा की पुलिसिंग में इनकी भूमिका कम होती है.
हमें बताया गया कि डीआरजी के सदस्य अक्सर दूर-दराज़ के जंगलों में ऑपरेशन करते हैं.
डीआरजी के एक सदस्य ने कहा, "ख़ास तौर पर पिछले कुछ सालों में हमने ऐसे इलाक़ों में कई कैम्प खोले हैं. ऐसे इलाक़ों में हमें देखकर लोग डर जाते हैं. ज़्यादा बात नहीं करते. हम उनसे जबरन बात करते हैं. मेरा मतलब है, हम उनसे बंधुत्व की भावना से बात करते हैं. ज़्यादातर वे भी हमसे बात कर लेते हैं."
डीआरजी में महिलाएँ भी शामिल हैं, उनमें से एक महिला ने हमें बताया, "मैंने 2024 में डीआरजी जॉइन किया और ऑपरेशनों में भी हिस्सा लिया है.'' उन्होंने बताया कि इस फ़ोर्स से जुड़ने के बाद वे अपने गाँव में अपने परिवार से मिलने नहीं जा सकतीं.
उनके मुताबिक़, "हम यह नहीं कह सकते कि हथियारबंद माओवादी पूरी तरह से चले गए हैं. वे कभी भी हमला कर सकते हैं इसलिए मेरा परिवार डरता है. मुझे उन्होंने मना किया है कि मैं गाँव न आऊँ."
एक और डीआरजी सदस्य का इल्ज़ाम है कि कुछ महीने पहले उनके गाँव में ज़मीन के झगड़े की वजह से हथियारबंद माओवादियों ने उनके पिता की हत्या कर दी.
उन्होंने कहा, "मेरे बड़े भाई अब भी वहीं रहते हैं और मैं हमेशा उनकी सुरक्षा के बारे में चिंतित रहता हूँ.''
ट्रेनिंग के बारे में सवाल
डीआरजी के सदस्यों ने 28 साल के एक जवान की ओर इशारा किया. उन्होंने बताया कि वह 11–12 साल तक हथियारबंद माओवादियों के साथ जुड़े थे.
हमारे सामने बैठे जवान ने हमें बताया कि उन्हें डीआरजी ने ही पकड़ा था. यह पिछले साल की बात है.
उन्होंने कहा, "मैं उनका (हथियारबंद माओवादियों का) साथ छोड़ना चाहता था. मैंने पुलिस से संपर्क करने की कोशिश भी की लेकिन बात नहीं हो पाई. किसी तरह सुरक्षा बलों को पता चल गया कि मैं अपनी ससुराल में हूँ और वे वहाँ पहुँच गए. जो लोग आए थे, वे डीआरजी के ही थे. मैंने उनके सामने सरेंडर करने की पेशकश की.''
उन्होंने हमें बताया कि उसके कुछ ही हफ़्ते बाद वह डीआरजी के साथ काम करने लगे. हालाँकि बातचीत में यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि उन्हें डीआरजी में शामिल होने से पहले कोई ट्रेनिंग मिली थी या नहीं.
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हमने उनसे पूछा कि क्या वह ख़ुद इसमें शामिल होना चाहते थे?
उनका जवाब था, "मेरी पत्नी का भाई उस समय डीआरजी में था. उसने ही कहा कि मैं भी फ़ोर्स में आ जाऊँ. उसके साथ काम करूँ.''
उनके एक और साथी मिले. वह भी पूर्व हथियारबंद माओवादी थे. उन्होंने हमें बताया कि वह साल 2017 में डीआरजी में शामिल हुए थे.
पूछने पर उन्होंने बताया, "मुझे अब तक कोई ट्रेनिंग नहीं मिली है".
हमने जानना चाहा कि क्या वह डीआरजी के साथ ऑपरेशनों में हिस्सा ले रहे हैं?
उन्होंने बताया, "हाँ, अगर मैं नहीं जाऊँगा तो इसे गैर-हाज़िरी माना जाएगा. शायद मेरी तनख़्वाह भी रोक दी जाए. अगर मेरे कमांडर कहेंगे कि जाना है, तो मैं जाऊँगा. हमारे जैसे लोगों को इधर भी मरना है और उधर भी मरना है."
सरकारी अधिकारी क्या कहते हैं?
हमने इस बातचीत से उभरे सवालों को बस्तर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक (आईजी) पी. सुंदरराज के सामने रखा.
उन्होंने कहा, "ऐसा नहीं हो सकता. शायद उन डीआरजी सदस्यों ने किसी ख़ास तरह की ट्रेनिंग की बात की हो. ट्रेनिंग तो सबसे ज़रूरी चीज़ है. बिना ट्रेनिंग के हमारी फ़ोर्स का कोई भी जवान ऑपरेशन में नहीं जा सकता."
उन्होंने हमें बताया कि हर सदस्य के लिए छह महीने की ट्रेनिंग ज़रूरी होती है.
लेकिन डीआरजी की एक महिला सदस्य ने हमें बताया कि उन्हें भी सिर्फ़ दो महीने की ट्रेनिंग मिली है और वे ऑपरेशनों में हिस्सा ले रही हैं.
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'सलवा जुड़ुम' वाले मामले में दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाली नंदिनी सुंदर याचिका दायर करने वालों में शामिल थीं.
उन्होंने अदालत में कहा था कि छत्तीसगढ़ में रहने वाले आदिवासियों के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है जिसमें सलवा जुड़ुम अभियान में लगे एसपीओ भी शामिल हैं.
डीआरजी के काम के बारे में नंदिनी सुंदर कहती हैं, "हम जो बात लंबे समय से कह रहे हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार, जिसे केंद्र सरकार का समर्थन मिला है, साल 2005 से हथियारबंद माओवादियों से लड़ने के नाम पर क़ानून के दायरे से बाहर जाकर काम कर रही है, वह आज भी हो रहा है.''
''सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में साफ़ कहा था कि आप गाँव के लोगों के एक हिस्से को उसी गाँव के दूसरे हिस्से के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए नहीं इस्तेमाल कर सकते.''
''जहाँ तक सरेंडर कर चुके माओवादियों की बात है, एक सम्मानजनक सरकारी रवैया यह होना चाहिए कि उन्हें कहा जाए कि आओ, अब आम नागरिक की तरह सामान्य जीवन जियो. लड़ाई बंद करो. हथियार मत उठाओ. आप यह नहीं कह सकते कि अब तुमने हथियार उठा लिए हैं तो ज़िंदगी भर लड़ते रहो."
हथियारबंद माओवाद का अंत?
हमने डीआरजी के जवानों से पूछा कि सरकार कह रही है कि साल 2026 के मार्च तक हथियारबंद माओवाद आंदोलन ख़त्म कर दिया जाएगा. वे क्या सोचते हैं?
एक जवान ने कहा, "मुझे ऐसा होता नहीं दिख रहा. ये (माओवादी) कोई वर्दी वाली सेना नहीं है. ये लोग अक्सर आम लोगों में मिल जाते हैं. पहचानना मुश्किल होता है."
एक और डीआरजी सदस्य ने कहा, "कुछ हथियारबंद माओवादी सरेंडर कर रहे हैं. कुछ मारे जा रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ़ वे अब भी लोगों की भर्ती कर पा रहे हैं. इसी वजह से मुझे नहीं लगता कि इसे पूरी तरह ख़त्म किया जा सकता है."
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अब हम तस्वीर का एक और रुख़ देखते हैं.
इस साल की शुरुआत में पुलिस ने बीजापुर में आठ हथियारबंद माओवादियों को एक मुठभेड़ में मारने का दावाकिया था. इस ऑपरेशन में डीआरजी समेत अन्य सुरक्षा बल शामिल थे.
मारे गए लोगों में एक नाम लच्छू पोटाम का भी है. दावा किया गया कि इनके सिर पर इनाम था. लच्छू बीजापुर ज़िले के एक गाँव में रहते थे.
हमें यह अंदाज़ा नहीं था कि वहाँ तक पहुँचना कितना मुश्किल होगा, एक तो कई जगहों पर सड़कें नहीं थीं और बारिश की वजह से गाड़ी के पहिए बार-बार कीचड़ में धँस रहे थे.
हम गाँव में लच्छू के भाई अर्जुन पोटाम से मिले. लच्छू की दो बेटियाँ भी वहाँ थीं. उनकी माँ बीमारी की वजह से नहीं रहीं.
अर्जुन उस दिन की घटना को याद करते हुए दावा करते हैं, "रात को पुलिस गाँव पहुँची. उन्होंने इस जगह को घेर लिया और लोगों पर गोली चला दी. जो मारे गए, वे निहत्थे थे.''
उन्होंने आरोप लगाया, ''कुछ लोगों ने तो आत्मसमर्पण करने की कोशिश भी की लेकिन पुलिस ने उनकी बात नहीं मानी. लोगों को पकड़ा गया. पहाड़ पर ले जाया गया और गोली मार दी गई. मेरा भाई घायल हो गया था. उन्होंने उसे उसी हालत में पकड़ लिया. अगर वे उसे सात-आठ साल या 10 साल के लिए जेल भी भेज देते तो भी हमें मंज़ूर होता. कम-से-कम वह ज़िंदा तो रहता."
बीबीसी स्वतंत्र रूप से अर्जुन के इस बयान की पुष्टि नहीं कर सकता है.
हमने उनसे यह ज़रूर पूछा कि क्या उनके भाई का हथियारबंद माओवादियों से कोई रिश्ता था?

उनका जवाब था, "माओवादी भी लोगों को वैसे ही मारते-पीटते थे जैसे पुलिस करती थी. डर के इस माहौल में वह दोनों से बात करता था लेकिन उसने कभी हथियार नहीं उठाया और न ही माओवादी गतिविधियों में हिस्सा लिया. वह बस अपने खेतों में काम करता था."
वहाँ के ग्रामीणों ने भी कहा कि लच्छू हथियारबंद माओवादी नहीं था बल्कि वह उन्हीं की तरह गाँव में रहता था.
बीबीसी ने अर्जुन के आरोपों के बारे में जानने के लिए पुलिस से संपर्क किया. हमने पुलिस से यह भी पूछा कि लच्छू पर क्या आरोप थे? बार-बार पूछने के बावजूद पुलिस से कोई जवाब नहीं मिला.
हालांकि आईजी सुंदरराज कहते हैं, "हाल में किसी भी गतिविधि में सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ कोई आरोप साबित नहीं हुआ है. आरोप भी बहुत कम लगे हैं."
हथियारबंद आंदोलन की शुरुआत
भारत में हथियारबंद माओवादी संघर्ष का इतिहास पुराना है.
इसकी जड़ें कम्युनिस्टों के नेतृत्व में चलने वाले सशस्त्र तेलंगाना आंदोलन में है. यह आंदोलन ज़मीन के मालिकाना हक़ और शोषण के ख़िलाफ़ था. 1960 के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नाम के एक गाँव से शुरू हुए संघर्ष का नाम नक्सल आंदोलन पड़ा.
दिसंबर 2024 के गृह मंत्रालय के बयान मुताबिक, देश के नौ राज्यों के कई इलाक़े 'नक्सली हिंसा' के गिरफ़्त में थे. इनमें भी सबसे ज़्यादा इलाक़े छत्तीसगढ़ में थे.
इस विद्रोह का क्षेत्रीय फैलाव और तीव्रता हमेशा एक जैसी नहीं रही है. सरकार ने लोकसभा में माना कि साल 2010 में इस संघर्ष में एक हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हुई थी. इनमें आम नागरिक और सुरक्षा बल भी शामिल थे.
साल 2010 हिंसा के लिहाज़ से सबसे बुरे सालों में एक माना गया. लेकिन साल 2024 में सरकारने दावा किया कि साल 2010 की तुलना में अब माओवादी हमलों में होने वाली आम नागरिकों और सुरक्षा बलों की मौतों में बहुत कमी आई है.
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बस्तर में अब सड़कें बन रही हैं. नए स्कूल खोले जा रहे हैं और मोबाइल टावर लगाए जा रहे हैं, कई इलाकों में निर्माण गतिविधियाँ दिखाई देती हैं.
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़ साल 2019 से जुलाई 2025 के बीच इस क्षेत्र में 116 नए सुरक्षा कैंप बनाए गए हैं. इनमें आधे से ज़्यादा यानी 62 कैम्प, साल 2023 के बाद बने हैं.
सरकार का दावा है कि ऐसे कैम्पों से दूर-दराज़ के इलाक़ों में लोगों को ज़रूरी सेवाएँ देना आसान होता है.
क्या कहते हैं ग्रामीण?
हमें सुकमा ज़िले में एक स्मारक दिखा. इसे ग्रामीण आदिवासी समुदाय ने हाईवे के किनारे बनाया है.
हमें आदिवासियों ने बताया कि साल 2021 में यहाँ एक कैम्प बनाने के विरोध में प्रदर्शन हो रहा था. इस दौरान फ़ायरिंग हुई और पाँच आदिवासी व्यक्ति मारे गए. यह स्मारक उन्हीं की याद में है.
जबकि पुलिस का कहना है कि ये मौतें तब हुईं जब हथियारबंद माओवादियों ने एक हिंसक भीड़ जुटाकर पुलिस पर हमला किया. इसके बाद फ़ायरिंग भी हुई.
उसी गोलीबारी में उर्सा भीमा भी मारे गए थे. हम उनकी पत्नी उर्सा नंदे से मिले.
उर्सा ने आरोप लगाया, "जो अपने घरों में रहते हैं, उन्हें भी पुलिस वाले मारते हैं. पीटते हैं. इसी वजह से संघर्ष करना ज़रूरी हो गया था इसलिए मेरे पति भी गए. वहाँ पहुँचने के बाद फ़ायरिंग शुरू हो गई. कैसे और किसने शुरू की, यह पता नहीं चला, लेकिन उन्हें गोली लग गई.''
वे कहती हैं, "गोली लगने के बाद उनको नक्सलवादी बताकर ले जाया गया. क्या प्रशासन को यह फ़र्क़ नहीं मालूम था कि आम जनता कौन है और नक्सलवादी कौन?"
स्थानीय लोगों ने हमें यह भी बताया कि हाल तक यह इलाक़ा हथियारबंद माओवादियों का कोर क्षेत्र था. उनका कहना है कि "अब यहाँ कैम्प बन रहे हैं तो माओवादी पीछे हट गए हैं."
उर्सा नंदे का दावा है, "माओवादी कभी-कभी ग्रामीणों की मदद करते थे. जैसे कभी चावल वग़ैरह दे देते थे. अब उनकी तरफ़ से कोई मदद नहीं आती. सरकार से मैं क्या उम्मीद करूँ? हमारे सबसे मुश्किल समय में भी हमें उनसे कोई मदद नहीं मिली."
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, साल 2021 की इस घटना के बाद प्रशासन ने जाँच के आदेश दिए थे.
हमने प्रशासन से बार-बार उस जाँच के नतीजे जानने की कोशिश की. हमें कोई जवाब नहीं मिला.
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दूसरी ओर, बगल के बीजापुर में स्थानीय लोगों ने गाँव में एक सीमेंट की बनी बड़ी-सी जगह की ओर इशारा किया. उनके मुताबिक़, यह सुरक्षा कैम्प के लिए बना हेलिपैड है. उन्होंने बताया कि यहाँ हाल ही में कैम्प शुरू हुआ है.
इस ज़मीन के बारे में अर्जुन पोटाम का कहना है, "हम अपने मृतकों को वहीं दफ़नाते या उनका अंतिम संस्कार करते थे. पीढ़ी-दर-पीढ़ी यही होता आया है. अब हम कहाँ जाएँ?"
इस ज़मीन की मिल्क़ियत के बारे में हम पुख़्ता तौर पर कुछ नहीं कह सकते क्योंकि यह बस्तर के दुर्गम इलाक़े में है और गांव वालों के पास इसके कोई दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हैं.
हमने बीजापुर के पुलिस अधीक्षक और ज़िलाधिकारी से इसके बारे में जानना चाहा. बार-बार संपर्क किए जाने के बावजूद उनका कोई जवाब नहीं मिला.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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